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________________ गा० ५८ ] ट्ठिदिसकमे अोकडुणामीमांसा २४५ पुण समयुत्तरा होइ । उदयावलियबाहिरद्विदीए वि एदिस्से अइच्छावणाभावेण पवेसदसणादो। 8 एवमइच्छावणा समुत्तरा । णिक्खेवो तत्तिगो चेव उदयावलिय बाहिरादो आवलियतिभागंतिमट्ठिदि त्ति । ६५०३. एवमवट्ठिदेण णिक्खेवेण समयुत्तराए च अवट्टिदाइच्छावणाए ताव णेदव्वं जाव उदयावलियबाहिरादो जहण्णणिक्खेवमेत्तद्विदीओ अइच्छावणामावेण पइट्ठाओ ति । तइत्थीए द्विदीए आइच्छावणा संपुष्णिया आवलिया णिक्खेवो जहण्णओ चेव । कइत्थओ वुण सो हिदिविसेसो ? उदयावलियबाहिरादो आवलियतिभागंतिमो। एत्थावलियतिभागग्गहणेण समयूणावलियतिभागो समयुत्तरो घेत्तव्यो। तदंतिमग्गहणेण च तदणंतरुवरिमट्ठिदिविसेसो गहेयव्यो। तम्हा उदयावलियबाहिरादो जहण्णणिक्खेवमेत्तीओ द्विदीओ उल्लंघिय द्विदाए हिदीए संपुण्णावलियमेत्ती अइच्छावणा होइ ति सुत्तस्स भावत्थो। संपहि एत्तो उवरि अवडिदाए अइच्छावणाए णिक्खेवो चेव वड्ढदि त्ति परूवेदुमुत्तरसुत्तमाहनहीं है। किन्तु अतिस्थापना एक समय अधिक होती है, क्योंकि उदयावलिके बाहरकी स्थितिमें भी इसका अतिस्थापनारूपसे प्रवेश देखा जाता है। * इस प्रकार अतिस्थापना एक एक समय अधिक होती जाती है और निक्षेप उदयावलिके बाहर आवलिके तीसरे भागकी अन्तिम स्थिति तककी स्थितियोंके प्राप्त होने तक उतना ही रहता है। ६.०३. इस प्रकार अतिस्थापनामें उदयावलिके बाहरसे जघन्य निक्षेपप्रमाण स्थितियों के प्रविष्ट होने तक निक्षेपको अवस्थितरूपसे ले जाना चाहिये और अतिस्थापनाको उत्तरोत्तर एक एक समय अधिकके क्रमसे अनवस्थितरूपसे ले जाना चाहिये। फिर वहाँ जो स्थिति प्राप्त होती है उसकी प्रतिस्थापना पूरी एक आवलिप्रमाण होती है और निक्षेप जघन्य ही रहता है। शंका-जिस स्थितिविशेषके प्राप्त होनेपर अतिस्थापना पूरी एक श्रावलिप्रमाण होती है वह स्थितिविशेष किस स्थानमें प्राप्त होता है। समाधान-उदयावलिके बाहर आवलिके तीसरे भागका जो अन्तिम समय है वहाँ वह स्थितिविशेष प्राप्त होता है। यहाँ सूत्र में जो 'आवलियतिभाग' पदका ग्रहण किया है सो इससे एक समय कम आवलिका एक समय अधिक त्रिभाग लेना चाहिये । और सूत्र में जो 'तदंतिम पदका ग्रहण किया है सो इससे तदनन्तर उपरिम स्थितिविशेषका ग्रहण करना चाहिए । अतः उदयावलिके बाहर जघन्य निक्षेपप्रमाण स्थितियोंको उल्लंघन करके जो स्थिति स्थित है उसके प्राप्त होने तक पूरी एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब इससे आगे अतिस्थापना तो अवस्थित रहती है किन्तु निक्षेप ही बढ़ता है इस बातका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं १. ता०-श्रा०प्रत्योः पदेसदसणादो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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