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________________ गा० ५८] वड्डीए समुक्त्तिणादी २३६ ६४८५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थोघेण जह० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च तिणि वि सरिसाणि १ । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज०-अणुदिसादि जाव सव्वढे त्ति उक्कभंगो । एवं० जाव०। एवं पदणिक्खेवो समत्तो। ४८६. वड्डिसंकमे तस्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । तत्थ समुक्त्तिणाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि संखेजभागवड्डी हाणी संखे०गुणवड्डी हाणी अवट्ठा० अवत्तव्वं च । एवं मणुसतिए । सेसं भुजगारभंगो।। ____४८७. सामित्तं भुजगारभंगो । णवरि संखेजगुणवड्डी हाणी कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइट्ठिस्स । एवं मणुसतिए ३ । सेसं भुजगारभंगो । ४८८. कालो भुजगारभंगो। णवरि संखेजगुणवड्डी जह० एयसमओ, उक्क० वे समया । संखेजगुणहाणी जह० उक्क० एगसमओ । मणुस्स०३ संखे०गु णवड्डी हाणी जह० उक० एयसमओ । सेसं भुजगारभंगो । ६४८५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान ये तीनों ही समान हैं १ । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मागंणातक जानना चाहिये। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। ६४८६. अब वृद्धिसंक्रमका अधिकार है। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य ये पद हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये । शेष कथन भुजगारके समान है। ६४८७. स्वामित्वका भंग भुजगारके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि किसके होती है ? किसी सम्यग्दृष्टिके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये । शेष भंग भुजगारके समान है। ६४८८. कालका भंग भुजगारके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मनुष्यत्रिकमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। शेष भंग भुजगारके समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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