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________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । एवं जाव० । ____ ४८३. जह० पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण जह० वड्डी कस्स ? जो छव्वीससंकामओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स जहणिया वड्डी । जह० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जेण सत्तावीससंकामगेण सम्मत्तमुव्वेल्लिदं तस्स जह० हाणी । अण्णदरत्थावट्ठाणं । एवं चदुसु वि गदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्जत्त-अणुद्दिसादि जाव सबढे ति जह० हाणी अवट्ठाणं च उक्कस्सभंगो। एवं जाव० । ४८४. अप्पाबहुअं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा उक्क० हाणी ८। वड्डी अवट्ठाणं च दो वि सरिसाणि संखेज्जगुणाणि २१ । प्रादेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी ४ । वड्डी अवठ्ठाणं च दो वि सरिसाणि विसेसाहियाणि ६। एवं' सधणेरइय-सव्यतिरिक्खसव्वदेवा त्ति । णवरि पंचिंतिरिक्खअपज्ज०-अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा ति उक्क० हाणी अवट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । मणुसतिएसु सव्वत्थोवा उक्क० वड्डो ७। उक्क० हाणी अवट्ठाणं च दो वि सरिसाणि विसेसाहियाणि ८ । एवं जाव० । चतुष्ककी विसंयोजन किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गेणा तक जानना चाहिये । ६४८३. जघन्यका प्रकरगा है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । अंघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो छब्बीस प्रकृतियोंका संक्रामक जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रामक जिस जीवने सम्यक्त्वकी उद्वेलना की है उसके जघन्य हानि होती है। तथा किसी एकके अवस्थान होता है । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि और अवस्थानका भंग अपने उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। ६४८४. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है ८ । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान ये दोनों समान होते हुए संख्यातगुणे हैं २१ । प्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है ४ । वृद्धि और अवस्थान ये दोनों समान होते हुए विशेष अधिक हैं ६ । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च और सब देवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं। मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी है ७ । उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान होते हुए विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । १. ता०प्रतौ हियाणि । एवं इति पाठः । २. ता०प्रतौ वड्डी । उक० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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