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________________ २३७ गा० ५८] पदणिक्खेवे सामित्तं णत्थि । एवं जाव० । एवं जहण्णं पि णेदव्वं । ४८२. सामित्तं दुविहं जहण्णुक्कस्सभेदेण । उक्क० पयदं । दुविहो णिदेसोओघेण आदेसेण य । ओघेण उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो उवसामगो मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणि संकामेमाणओ देवो जादो तस्स तेवीसं पयडीओ संकामेमाणस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक० हाणी कस्स ? जो खवओ अट्ठकसाए खवेदि तस्स उक्क. हाणी। आदेसेण णेरइय० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो इगिवीसं संकामेमाणो सत्तावीसं संकामगो जादो तस्स उक्क० वड्डी। तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं। उक्क० हाणी कस्स ? जो सत्तावीसं संकामेमाणो अणंताणु०चउकं विसंजोएदि तस्स उक० हाणी । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-देवा जाव णवगेवजा ति। णवरि पंचिं०तिरिक्खअपज्ज. उक्क० हाणी कस्स ? जो सत्तावीससंकामगो छव्वीससंकामगो जादो तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उकस्समवट्ठाणं । एवं मणुसअपज्ज० । मणुसतिए उक्क० वड्डी कस्स ? जो चउवीससंतकम्मिओ उवसमसेढीदो ओयरमाणो चोदससंकामणादो इगिवीससंकामगो जादो तस्स उक० वड्डी । हाणी ओघभंगो। एत्थेव उकस्समवट्ठाणं । अणुदिसादि जाव सव्वढे त्ति उक० हाणी कस्स ? जेण सत्तावीसं संकामेमाणेण अणंताणुबंधिच उकं विसंजोइदं तस्स उक्क० अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । इसी प्रकार जघन्यका भी कथन करना चाहिये। ६४८२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक जीव मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करता हुआ देव हो गया है उसके तेईस प्रकृतियोंका संक्रम करते हुए उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो क्षपक आठ कषायोंका क्षय करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाला जीव सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रामक जो जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, देव और नौ प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रामक जीव छब्बीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो जाता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार मनष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये। मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय चौदह प्रकृतियोंके संक्रमके ब इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो जाता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होता है। ह निका कथन ओघके समान है। तथा यहीं पर उत्कृष्ट अवस्थान होता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जिस जीवने अनन्तानुबन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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