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________________ २३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सव्वत्थोवा अवत्त० संका० । अप्प० संका० असंखे गुणा । भुज०संका० विसेसा० । अवढि० अणंतगुणा । आदेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा अप्पद०संका० । भुज० विसे० । अवढि० असंखे०गुणा । एवं सव्वणेरइय-पंचिं०तिरिक्खतिय३-देवा जाव गवगेवजा त्ति । एवं तिरिक्खेसु । णवरि अवढि० अणंतगुणा । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज०अणुदिसादि जाव अवराजिदा ति अप्पदरसंका० थोवा। अवढि० असंखे गुणा । एवं सबढे । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । मणुसेसु सव्वत्थोवा अवत्तः । भुज० संखे गुणा । अप्पद० असंखे०गुणा । अवट्ठि० असंखे०गुणा । एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाव० । एवं भुजगारो समत्तो। ४८१. पदणिक्खेवे त्ति तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुगं ति । समुक्त्तिणा दुविहा-जहण्णा उक्कस्सा च । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । एवं चदुगदीसु । गवरि पंचिंतिरि०अपज्ज०-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा ति उक० वड्डी संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके संक्रामक जीव विशेष अधिक है। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतरपदके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगारपदके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तियचत्रिक, देव और नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिये । इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितपदवाले जीव अनन्तगुणे हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें अल्पतरपदके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सर्वार्थ सिद्धि में जानना चाहिये। किन्तु इतनो विशेषता है कि उनमें संख्यातगुणा करना चाहिये। मनुष्योंमें अवक्तव्य पदके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगारपदके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सर्वत्र असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। इस प्रकार भुजकार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६४८१. पदनिक्षेपमें तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक, मनुष्य अपर्याप्तक और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें उत्कृष्ट वृद्धि नहीं है। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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