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________________ गा० ५८ ] भुजगारे अंतरं २३५ भंगो । एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु । णवरि अप्पद० उक्क० संखेज्जा समया । मणुसअपज्ज० अप्पद० ओघं । अवट्ठि० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । सबढे अप्पद० जह० एयसमओ, उक० संखेज्जा समया । अवढि० ओघभंगो । एवं जाव० । ___ ४७८. अंतराणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०अप्पद० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ता सादिरेया। अवट्ठि० णत्थि अंतरं । अवत्त० जह० एयसमओ, उक. वासपुधत्तं । एवं मणुसतिए ३। एवं सव्वणेरइय०सव्यतिरिक्ख०-सव्वदेवा ति। णवरि अवत्त० णस्थि। पंचितिरिक्खअपज्ज० भुज० णत्थि । मणुसअपज्ज० अप्पद०-अवढि० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति अप्पद० जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० असंखे०भागो' । अवढि० णत्थि अंतरं । एवं जाव० । ४७९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । ४८०. अप्पाबहुआणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण अोधके समान है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अल्पतर पदका काल ओघके समान है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थित पदका काल ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। ४७६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा भुजगार और अल्पतरपद्का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितपदका अन्तरकाल नहीं है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिथंच और सब देवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें भुजगारपद नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनुदिशसे अपराजितक वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । ६ ४७६. भाव सर्वत्र औदयिक है । ६४८०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा अवक्तव्यपदके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अल्पतरपदके १ श्रा०प्रतौ संखे भागो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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