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________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ आदेसेण रइय० भुज-अप्पद०-अवट्ठि० ओघभंगो। एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्खसव्वदेवा त्ति । णवरि पंचिं०तिरि०अपज०-मणुसअपज्ज-अणुदिस्सादि जाव सव्वद्वे त्ति अप्पद०-अवट्ठि० कस्स ? अण्णद० । एवं जाव० । ४७०. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओधेण भुज०संका० केवचिरं० ? जह० एगसमओ, उक्क० वेसमया। अप्पदर०-अवत्त० जहण्णुक० एगसमओ। अवढि०संका० तिण्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० एगसमओ, उक० उवड्ड पोग्गलपरियट्टा । आदेसेण णेरइय० भुज०-अप्पद० ओघं । अवढि० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सव्वणेरइय०सव्वतिरिक्ख०-सव्वदेवे त्ति । णवरि अवविदस्स सगहिदी वत्तवा । पंचिं०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज० अप्पद० जह० उक्क० एगसमओ। अवढि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति अप्पद०' ओघभंगो। अवढि० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगढ़िदी। मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि अवत्त० जह० उक्क० एगसमओ । एवं जाव० । है कि यहाँ पर प्रथम समयवर्ती देवके नहीं कहना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितरूप संक्रमका भंग ओघके समान है। इसीप्रकार सब नारकी, सब तियेच और सब देवों में जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रियतिर्यंचअपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतरके होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । ४७०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भजगार पदके संक्रामकका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उकृष्ट काल दो समय है। अल्पतर और अवक्तव्यपदोंके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित संक्रमस्थानोंके संक्रामकके तीन भंग हैं। उनमें से जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदोंका भंग ओघके समान है। अवस्थित पदके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च और सब देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अवस्थित संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अल्पतर पदके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित पदके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर पदका भंग ओघके समान है। अवस्थितपदके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये । १. ता प्रतौ [ अपद० ], प्रा॰प्रतौ अप्पज इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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