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________________ २३१ गा० ५८] भुजगारे अंतरं ६४७१. अंतराणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज० जह० एगसमओ, अप्प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० दोण्हं पि उवड्ढपोग्गलपरियढें । अवडिद० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि । आदेसेण णेरइय० भुज०-अप्पद० जह० एयसमओ अंतोमुहत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवडि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया, पढमट्ठिदिदुचरिमसमए सम्मामि०चरिमफालिं संकामिय सम्मत्तं पडिवण्णम्मि तदुवलंभादो। एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगहिदी० । तिरिक्खाण. णारयभंगो । णवरि उक० उवड्डपोग्गलपरियढें । पंचिंदियतिरिक्खतिय ३ णारगभंगो। णवरि उक० सगढिदी। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति अप्पदर० णत्थि अंतरं । अवट्ठि० जह० उक० एयसमओ । मणुसतिए ३ भुज०-अप्पद० पंचिं०तिरिक्खभंगो। अवढि० ओघो । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । देवाणं णारयभंगो । णवरि उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । भवणादि जाव णवगेवजा त्ति एवं चेव । णवरि सगढिदी देसूणा । ४७१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे भुजगार पदके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। अल्पतर पदके संक्रामकका जघन्य अन्तकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा इन दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । अवस्थित पदके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूते है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थित पदके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय है, क्योंकि जो जीव प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका संक्रम करके सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके अवस्थितपदका यह उत्कृष्ट अन्तर काल पाया जाता है । इसी प्रकार सब नारकी जीवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिये । तिर्यञ्चोंमें अन्तरका कथन नारकियोंके समान करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें अन्तरका कथन नारकियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पंचेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतरपदके संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितपदके संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है। मनुष्यत्रिकमें भुजगार और अल्पतरपदका अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। अवस्थितपदका अन्तर ओघके समान है। अवक्तव्यपदके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। देवोंमें अन्तरका कथन नारकियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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