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________________ गा० ५८] भुजगारे समुक्त्तिणा सामित्तं च २२६ गुणा। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा ति सव्वत्थोवा २१ संका० । २३ संकामया संखे०गुणा । २७ संका० संखेजगुणा । एवं जाव० । एवमप्पाबहुअं समत्तं । $ ४६८. एत्थ भुजगार-पदणिक्खेव-बडिसंकमा च कायव्वा, सुत्तचिदत्तादो । तं जहा-भुजगारे तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्कित्तणाए दुविहो णिसो-ओघेणादेसेण य । अोघेण अत्थि भुज०अप्प०-अवट्टि०-अवत्तसंकामया। एवं मणुस०३ । आदेसेण णेरइय० एवं चेव । णवरि अवत्तव्वपदं णत्थि । एवं सव्वणिरय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वदेवा त्ति । णवरि पंचिं०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज०-अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति अस्थि अप्प०-अव्वढि०संकामया। एवं जाव० । ४६९. साम्मित्ताणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०अप्पदर०-अवढि०संकमो कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिढि० मिच्छादिहिस्स वा । अवत्त० कस्स ? असंकामओ होऊण परिवदमाणयस्स इगिवीससंतकम्मिओवसंतकसायस्स पढमसमयदेवस्स वा । एवं मणुसतिए । णवरि पढमसमयदेवस्से त्ति ण वत्तव्वं । प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २१ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे २३ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे २७ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४६८. यहाँ पर भुजगार ,पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रम इनका कथन करना चाहिए, क्योंकि इनकी सूत्र में सूचना की गई है । यथा-उनमेंसे भुजगार अनुयोगद्वारमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । उनमेंसे समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं होता । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थित संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गेणा तक जानना चाहिये ।। ६४६६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितरूप संक्रम किसके होता है ? किसी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होता है। प्रवक्तव्यसंक्रम किसके होता है ? इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो असंक्रामक उपशान्तकषाय जीव उपशमश्रेणिसे च्युत हो रहा है उसके होता है। या इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो असंक्रामक उपशान्तकवाय जीव मरकर देवों में उत्पन्न होता है, प्रथम समयवर्ती उस देवके होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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