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________________ गा० ५८] पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण अंतरं १६६ सम्मत्ताहिमुहो होऊणंतरं करिय मिच्छत्तपढमहिदिदुचरिमसमए सत्तावीससंकामयभावेण सम्मत्तचरिमफालिं मिच्छत्तस्सुवरि संकामिय तदो चरिमसमयम्मि छव्वीससंकमेणंतरिय सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमयम्मि पुणो वि सत्तावीससंकामयभावेण परिणदो तस्स लद्धमंतरं । उक्क० उवडपोग्गलपरियट्टपरूवणी कीरदे । तं कथं ? एगो अणादियमिच्छाइट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टस्सादिसमये उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेण सम्मत्तमुव्वेल्लिय सत्तावीसाए अंतरमुप्पाइय देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिय सव्वजहण्णंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमए सत्तावीसं संकामेमाणस्स लद्धमंतरं होइ । ___३९६. संपहि छव्वीसाए जहण्णेणेयसमयमंतरपरूवणा कीरदे । तं जहाउव्वेल्लिदसम्मत्तसंतकम्मो छव्वीससंकामओ उवसमसम्मत्ताहिमुहो होदूण मिच्छत्तपढमद्विदिदुचरिमसमए सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं मिच्छत्तसरूवेण संकामिय तदणंतरसमए वि पणुवीससंकमेणंतरिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमयम्मि पुणो छव्वीससंकामओ जादो, लद्धमेगसमयमेत्तं जहण्णंतरं। उक्कस्संतरं पुण अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए क्रिया की। अनन्तर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके उपान्त्य समयमें सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम करते हुए सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिका मिथ्यात्वमें संक्रम किया। फिर अन्तिम समयमें उसने छब्बीस प्रकृतियोंके संक्रम द्वारा एक समयके लिये सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया। फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके प्रथम समयमें वह फिरसे सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामक हो गया। इस प्रकार इसके सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमका जघन्य अन्तर काल एक समय प्राप्त हुआ। अब उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते हैं। यथा-किसी एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें ही उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर, अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर, सबसे जघन्य उद्वेलन कालके द्वारा सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमका अन्तर उत्पन्न किया। फिर वह कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहा और जब सिद्ध होनेके लिये सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब वह उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो गया और उसके दूसरे समयमें वह सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रम करने लगा। इस प्रकार प्रकृत स्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो गया। ३६६. अब छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तर एक समयका कथन करते हैं। यथा-जिसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर दी है ऐसे किसी एक छब्बीस प्रकृतियोंका संक्रमण करनेवाले जीवने सम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको मिथ्यात्वरूपसे संक्रमित किया । फिर तदनन्तर समयमें अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रमण द्वारा एक समयके लिये छब्बीस प्रकृतियोंके संक्रमणका अन्तर करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया और उसको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें वह फिरसे छब्बीस प्रकृतियोंका संक्रमण करने लगा। इस प्रकार छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। अव उत्कृष्ट अन्तर कालका खुलासा करते हैं-किसी एक जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें ही उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त १. प्रा॰प्रतौ -यमु परूवणा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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