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________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ * एत्तो एयजीवेण अंतरं। ३९४. एत्तो उवरि जहावसरपत्तमेयजीवेणंतरं भणिस्सामो त्ति पइजासुत्तमेदं । ॐ सत्तावीस छव्वीस-तेवीस-इगिवीससंकामगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण एयसमो, उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियट्ट। ३९५. तं जहा-सत्तावीसाए जह० एयसमओ त्ति एदस्स अत्थे भण्णमाणे एओ सत्तावीससंकामओ उवसमसम्माइट्ठी सगद्धाए एयसमओ अस्थि त्ति सासणगुणं पडिवन्जिय एयसमयं पणुवीसं संकमेणंतरिय पुणो मिच्छाइट्ठिभावेण सत्तावीससंकामओ जादो, लद्धं पयदजहण्णंतरं । अहवा सत्तावीससंकामओ मिच्छाइट्ठी समत्तमुव्वेल्लेमाणो विशेषार्थ—गुणस्थानका परिवर्तन नौवें अवेयक तक ही सम्भव है और यहीं तक मिथ्यादृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होता है, इसलिये पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल ३१ सागर कहा है। भवनवासी आदि तीन प्रकारके देवोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टिका उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, इसलिये इनमें मिश्र गुणस्थानकी अपेक्षा २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। जो २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला सम्यग्दृष्टि जीव अनुदिश आदिमें उत्पन्न हुआ है और अन्तर्मुहूर्तमें जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है उसके २७ प्रकृतिक संक्रमस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेप रहने पर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यहाँ यद्यपि भवनत्रिकमें भी २३ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण बतलाया है पर यह काल अन्तर्मुहूर्त कम जानना चाहिये, क्योंकि इन देवोंमें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । तथा अन्य प्रकारसे सतत २३ प्रकृतिक संक्रमस्थान यहाँ बन नहीं सकता है । शेष कथन सुगम है। * अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अधिकार है । २३६४. अब इस कालानुयोगद्वारके बाद अवसरप्राप्त एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है । अर्थात् इस सूत्रद्वारा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। * सत्ताईस, छब्बीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक संक्रामकका कितना अन्तर काल है ? जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल उपापुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६३६५. खुलासा इस प्रकार है-सर्व प्रथम सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य अन्तर काल एक समय है इसका अर्थ कहते हैं-किसी एक सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवने उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर और एक समय तक पच्चीस प्रकृतियों का संक्रम करके एक समयके लिये सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया । फिर वह मिथ्यादृष्टि होकर सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत स्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त हो गया। अथवा किसी एक सत्ताईस प्रकृतिक संक्रामक मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्वकी उद्वेलना करते हुए सम्यक्त्वके अभिमुख हो कर अन्तरकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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