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________________ गा० ५८ ] किमद्वारा एवजीवेण कालो १६७ एयसमओ, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मणुसिणीसु पुक्कोडी देखणा | सेसमोघं । णवरि मणुस्सिणी० १४ संका० णत्थि । १२ जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुत्तं । अथवा दोन्हं पि ओयरमाणस्स जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । ६ ३९३. देवेसु २७, २३, २१ संका० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । २६ संका० ओघभंगो । २५ जह० एयसमओ, उक्क० एक्कत्ती सं सागरोमाणि । एवं भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति । णवरि सगट्टिदी | अण्णं च भवण०-वाण० - जोइसि ० २१ जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुद्दिसादि जाव सव्बट्ठा त्ति २७, २३ जह० अंतोमुहुत्तं उक० सगट्टिदी | २१ जह० जहणहिदी, उक० उक्कट्ठी | वरि सबट्ठे जहण्णुक्कस्स भेदो णत्थि । एवं जाव० । समान हे । २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है । किन्तु मनुष्यनियोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । शेष कथन ओघ के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें १४ प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं है और १२ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अथवा उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले मनुष्यिनी जीव की अपेक्षा दोनों ही स्थानोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – एक पूर्वको टिकी आयुवाले जिस मनुष्यने त्रिभाग में आयुका बन्ध करके क्षायिक सम्यग्दर्शन उपार्जित किया है और फिर मरकर जो तीन पत्य की युवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है उसके इतने काल तक मनुष्यों में २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान देखा जाता है अतः मनुष्योंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य कहा है । किन्तु यह अवस्था मनुष्यनियोंके नहीं बन सकती, क्योंकि स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर, नहीं उत्पन्न होता है, इसलिये मनुष्यनियोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। मनुष्यनीके उपशमश्रेणिमें चढ़ते समय १२ प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं प्राप्त होता किन्तु क्षपकश्रेणि में ही प्राप्त होता है, इसलिए मनुष्यनी में १२ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । किन्तु इसके उपशमश्रेणिसे उतरते समय १२ और १४ प्रकृतिक दोनों संक्रमस्थान बन जाते हैं और इन स्थानोंका उपशमश्रेणिमें जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहाँ भी कथन सुगम है । इनका उक्त प्रमाण काल कहा है । शेष $ ३१३. देवोंमें २७, २३ और २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । २६ प्रकृतिक संक्रामकका भंग ओघ के समान है । २५ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनीअपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । दूसरे भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २७ और २३ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण है। और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में अपनी स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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