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________________ १६६ जयधवनासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ३९१. तिरिक्खेसु २७ संका० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण' सादिरेयाणि । २६ संका० ओघभंगो। २५ संका० जह० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । २३ संका० जह० एयस०, उक०तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । २१ संका० जह० एयस०,उक्क तिण्णि पलिदो । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिय०३। णवरि २७, २५ संका जह० एयस०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । जोणिणीसु २१ संका० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० २७,२६,२५ संका० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । ___$ ३९२, मणुसतिए २७,२५,२३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। २१ संका० जह० ६३६१. तिर्यञ्चोंमें २७ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय हे और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक तीन पल्य है। २६ प्रकृतिक संक्रामकका काल ओघके समान है । २५ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो कि असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। तथा २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें २७ और २५ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । योनिनी तिर्यञ्चोंमें २१ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें २७, २६ और २५ प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—यहां तिर्यचगतिमें और उसके अवान्तर भेदोंमें सम्भव संक्रमस्थानोंका काल बतलाया गया है सो यहां सम्भव स्थानोंके जघन्य कालका खुलासा जिस प्रकार नरकगतिमें कर आये हैं उसी प्रकार यहां पर भी कर लेना चाहिये । अब रही उत्कृष्ट कालकी बात सो उसका खुलासा करते हैं-कोई एक २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि तिर्यंच है जिसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए पल्यका असंख्यातवां भाग काल हो गया है। फिर यह जीव तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ इनकी उद्वेलनाको पूरा करनेके पूर्व ही वह सम्यग्दृष्टि हो गया और अन्त तक सम्यग्दृष्टि बना रहा तो इस प्रकार तिर्यञ्चोंमें २७ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य बन जाता है । सादिसान्त विकल्पकी अपेक्षा तिर्यञ्चगतिमें निरन्तर रहनेका काल अनन्त काल है। इसीसे पञ्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बतलाया है। तिर्यञ्चोंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासे युक्त वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होता है । इसीसे यहाँ २३ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। तथा तिर्यञ्चोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि भी पैदा होते हैं, इसलिये तिर्यञ्चगतिमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है । शेष कथन सुगम है। ६३६२. मनुष्यत्रिकमें २७, २५ और २३ प्रकृतिक संक्रामकका काल पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके १ ता०प्रतौ -पलिदोवमाणि असंखेजभागेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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