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________________ १६५ गा०५८] पयडिसकमट्ठाणाणं एयजीवेण कालो उक्क० तेत्तीसं सागरो० अंतोमुहुत्तूणाणि । २१ संका० जह• एयस०, उक्क० सागरोवमाणि देसूणाणि । एवं पढमाए । णवरि उक० सगट्टिदी। विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सगहिदी वत्तव्वा । २१ संका० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । संक्रामकका काल ओघके समान है। तेईस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्तकम तेतीस सागर है। तथा इक्कीस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं प्रथिवी तक कालका कथन इसी प्रकार करना चाहिये। किन्त इतनी विशेषता है कि यहां पर उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। तथा इन प्रथिवियोंमें इक्कीस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। विशेषार्थ-अन्य गतिका जो जीव सम्यक्त्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर मर कर नरकमें उत्पन्न हुआ है उसके नरकमें २७ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । यह २७ प्रकृतिक संक्रमस्थानकी जघन्य काल विषयक श्रोध प्ररूपणा प्रथमादि सातों नरकोंमें घटित हो जाती है । तथा जो सातवें नरकका नारकी जीव जीवनके प्रारम्भमें व अन्तमें २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि रहता है और मध्यमें परे काल तक अनन्तानबन्धीकी विसंयोजना किये बिना वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके २७ प्रकृतियोंके संक्रामकका उत्कृष्ट काल ३३ सागर प्राप्त होता है। आशय यह है कि ऐसे जीवको जीवन भर २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला बनाये रखनेके साथ सासादन और मिश्र गुणस्थानमें नहीं ले जाना चाहिये । तब जाकर २७ प्रकृतिक संक्रमस्थानका यह उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। सातवें नरकमें यह उत्कृष्ट काल इसी प्रकार घटित करना चाहिये। किन्तु शेष नरकोंमें इस कालको अपनी अपनी आयु प्रमाण कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि छठे नरक तकके जीवोंको अन्तमें मिथ्यात्वमें ले जानेका कोई कारण नहीं है, क्योंकि वहां तकके नारकियोंका सम्यग्दर्शनके रहते हुए भी मरण होता है । २५ प्रकृतियोंके संक्रामकका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार ओघ प्ररूपणामें घटित कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये। तथा सामान्यसे नारकीकी उत्कृष्ट अायु तेतीस सागर होती है अतः इस स्थानका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। प्रथमादि नरकोंमें भी इस स्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालको इसी प्रकार प्राप्त कर लेना चादिये । केवल उत्कृष्ट काल अपनी अपनी आयुप्रमाण कहना चाहिये । छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका जो क्रम ओघसे बतलाया है वह क्रम यहाँ नरकमें भी सामान्यसे या प्रत्येक नरकमें बन जाता है, इसलिये यहाँ इस स्थानका काल ओघके समान होता है यह निर्देश किया है। तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार ओघसे घटित कर आये हैं उसी प्रकार यहां नरकमें भी घटित कर लेना चाहिये। किन्तु उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सामान्यसे नरकायु तेतीस सागरसे अधिक नहीं होती, अतः तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर और प्रत्येक नरककी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुप्रमाण प्राप्त होता है । २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल एक समय सासादन गुणस्थानकी अपेक्षासे और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर क्षायिकसम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे प्राप्त होता है, अतः सामान्यसे नरकमें व प्रथम नरकमें यह कथन इसी प्रकारसे बन जाता है। किन्तु द्वितीयादि नरकोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं पैदा होते, अतः वहाँ उत्कृष्ट काल मिन गुणस्थानकी अपेक्षासे घटित करना चाहिये । इसीसे द्वितीयादि नरकोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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