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________________ १६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६३८७. तं जहा-चउवीससंतकम्मिओवसामयस्स सव्वोवसमं कादूण हेट्ठा ओयरमाणस्स बारसकसायाणमोकड्डणाए वावदस्स जाव सत्तणोकसायाणमणोकड्डणा ताव चोद्दससंकामयस्स उकस्सकालो होइ । एवं छण्हं णवण्हं पि वत्तव्वं । णवरि इगिवीससंतकम्मिओवसामयस्स सव्वोवसामणादो पडिवदिदस्स जहाकम तिविहमायमाणाणमोकड्डणपरिणदावत्थाए परूवेयव्वं । संपहि एकिस्से संकमट्ठाणस्स जहण्णुकस्सकालणिरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ * एकिस्से संकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६३८८. सुगमं । * जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३८९. खवयस्स माणसंजलणक्खवणाए एयसंकामयत्तमुवगयस्स मायासंजलणक्खवणकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो एकिस्से संकामयकालो होइ । सो च कोहमाणोदएण चढिदस्स जहण्णो मायोदएण चढिदस्स उक्कस्सो होदि ति घेत्तव्यो। ३९०. एवमोघेण सव्वसंकमट्ठाणाणं कालपरूवणं कादण संपहि आदेसपरूवणट्टमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा–आदेसेण हेरइय सत्तावीस-पंचवीससंकामयाणं जह० एयसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । २६ ओघ । २३ जह० एगस०, $ ३८७. खुलासा इस प्रकार है-सर्वोपशम करके श्रेणिसे नीचे उतरनेवाले चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके बारह कषायोंके अपकर्षणमें व्याप्त रहते हुए जब तक सात नोकषायोंका अपकर्षण नहीं होता तब तक उसके चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल होता है । तथा इसी प्रकार छह और नौ प्रकृतिक संक्रामकके उत्कृष्ट कालका भी कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव सर्वोपशामनासे च्युत हो रहा है उसके क्रमसे तीन प्रकारकी माया और तीन प्रकारके मानका अपकर्षण करने पर प्रकृत स्थानोंके उत्कृष्ट कालका कथन करना चाहिये। अब एक प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * एक प्रकृतिक संक्रामकका कितना काल है ? ६ ३८८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ३८६. जो क्षपक जीव मान संज्वलनका क्षय करनेके बाद एक प्रकृतिका संक्रामक हो गया है उसके माया संज्वलनके क्षपण करनेमें जो अन्तमुहूर्त काल लगता है वह एक प्रकृतिके संक्रामकका काल है। किन्तु वह क्रोध और मानके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके जघन्यरूप होता है और मायाके उदयसे चढ़े हुए जीवके उत्कृष्टरूप होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। ३९०, इस प्रकार ओघसे सब संक्रमस्थानोंके कालका कथन करके अब आदेशका कथन करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा-आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस और पच्चीस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। छब्बीस प्रकृतिक १. ता प्रतौ २७ इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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