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________________ गा० ५८ ] पडसंकमा एयजीवेण कालो १६३ जहणकालपरूवणाए निदरिसणं - एगो इगिवीससंतकम्मिओवसामगो दुविहकोहोव - सामणा परिणदो एयसमयं णवसंकामओ होऊण विदियसमए कालं काढूण देवो जादो, लद्वा पयदजहण्णा' । छण्हं संकामयस्स जहण्णकालपरूवणाए सो चेव इगिवीस संतकम्मिओवसामिओ णवसंकमट्ठाणादो कोहसंजलणाणवकबंधेण सह दुविहमाणोवसामणा परिणामिय एयसमयं छण्हं संकामगो जादो, विदियसमए कालं काढूण देवो जादो तस्स द्वो निरुद्धजहण्णकालो । * उक्कस्से दो आवलिया समयूणाओ । ९ ३८६. चोइससंकामयस्स ताव उच्चदे । सो चैव जहण्णकालसामिओ पुरिसवेदवबंध सातो समयूणदोआवलियमेत्तकालं चोदससंकामओ होइ । एसो चेव कमो णव छण्हं पि उक्कस्सकालपरूवणाए । णवरि सगजहण्णकालसामिओ जहाकमं कोह- माणसंजलणणवकबंधोवसामणापरिणदो पयदुक्कस्सकालसामिओ होइ त्ति वत्तव्वं । मेद' परुविय एत्थेव पयारंतरसंभवपदुष्यायणमुवरिममुत्तमोडणं * अथवा उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ओयरमाणस्स ल भइ । तियों के संक्रामकके जघन्य कालका कथन करनेके लिये उदाहरण देते हैं - जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक उपशामक जीव दो प्रकारके क्रोधका उपशम करके एक समय के लिये नौ प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया है उसके दूसरे समयमें मरकर देव हो जाने पर प्रकृत स्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । अब छह प्रकृतियोंके संक्रामकके जघन्य कालका कथन करते हैं-वही इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव नौ प्रकृतिक संक्रमस्थान में से क्रोधसंज्वलन के नव बन्धके साथ दो प्रकारके मानका उपशम करके जब एक समय के लिए छह प्रकृतियोंका संक्रामक हो जाता है और दूसरे समयमें मरकर देव हो जाता है तब उसके प्रकृत स्थानका जघन्य काल प्राप्त होता है । * उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवलि प्रमाण है । $ ३८६. सर्व प्रथम चौदह प्रकृतिक संक्रामकके उत्कृष्ट कालका कथन करते हैं - चौदह प्रकृतिक संक्रामकके जघन्य कालका निर्देश करते समय जो स्वामी बतलाया है वही जीव यदि मरकर देव नहीं होता किन्तु पुरुषवेदके नवक बन्धका उपशम करता है तो एक समय कम दो आवलि काल तक चौदह प्रकृतियों का संक्रामक होता है । तथा नौ प्रकृतियों और छह प्रकृतियोंके संक्रामक के उत्कृष्ट कालका कथन करते समय भी यही क्रम जानना चाहिये । किन्तु अपने अपने जघन्य कालका स्वामी जीव यदि दूसरे समय में मर कर देव न होकर क्रमसे क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके नवकवन्धका उपशम करता है तो क्रमसे प्रकृत स्थानोंके उत्कृष्ट कालका स्वामी होता है, इस प्रकार यहां उतना विशेष कहना चाहिये । इस प्रकार इसका कथन करके अब यहीं पर जो प्रकारान्तर सम्भव है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है * अथवा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है जो उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवके प्राप्त होता है । १. श्र०प्रतौ पयदजहण्णा इति पाठः । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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