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________________ १८६ गा० ५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाणं एवजीवेण कालो ३७३. संपहि एयारससंकामयजहण्णुकस्सकालपरूवणा कीरदे । तं जहाइगिवीससंतकम्मिओ उवसामओ जहाकममुवसामिदणवणोकसाओ एयसमयमकारससंकामओ होऊण तदणंतरसमए कालं कादूण देवो जादो तस्स लद्धो एयसमयमेत्तो पयदसंकमट्ठाणजहण्णकालो । खवगो णसयवेदं खवेदण जावित्थिवेदं ण खवेइ ताव पयदुकस्सकालो होइ । ३७४. संपहि दससंकमट्ठाणपडिबद्धजहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कीरदे । तं जहा-चउवीससंतकम्मिओवसामिओ तिविहकोहोवसामणाए परिणदो एयसमयं दससंकामओ जादो, विदियसमए देवेसुववन्जिय तेवीससंकामओ संजादो, लद्धो पयदसंकमट्ठाणजहण्णकालो । उकस्सकालो पुण खवगस्स छण्णोकसायखवणद्धामेत्तो घेत्तव्यो। ३७५, अट्ठसंकमट्ठाणजहण्णुकस्सकालविहासणं कस्सामो । तं जहा-चउवीससंतकम्मिओवसामओ दुविहमाणमुवसामिय एयसमयमट्ठसंकामओ होदूण विदियसमए कालगदो देवेसुबवण्णो लद्धो पयदजहण्णकालो । उकस्सकालपरूवणाणिदरिसणंएगो इगिवीससंतकम्मिओवसामगो कमेण णवणोकसाए तिविहं च कोहमुवसामिय अट्ठसंकामओ जादो । तत्थंतोमुहुत्तमच्छिऊण दुविहमाणोवसामणाए छण्हं संकामओ जाओ, लद्धो णिरुद्धसंकमट्ठाणुकस्सकालो दुविहमाणोवसामणद्धामेत्तो। ३७३. अब ग्यारह प्रकृतियोंके संक्रामकके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करते हैं। यथा-जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव क्रमसे नौ नोकषायोंका उपशम करके एक समयके लिये ग्यारह प्रकृतियोंका संक्रामक हो कर तदनन्तर समयमें मर कर देव हो जाता है उसके प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो क्षपक जीव नपुसक वेदका क्षय करके जब तक स्त्रीवेदका क्षय नहीं करता है तबतक प्रकृत स्थानका उत्कृष्ट काल होता है। ६३७२. अब दस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करते हैं। यथा-जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव तीन प्रकारके क्रोधके उपशम भावसे परिणत होकर एक समयके लिये दस प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ और दूसरे समयमें देवोंमें उत्पन्न होकर तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ उसके प्रकृत संक्रमस्थानका जघन्य काल प्राप्त होता है। तथा क्षपक जीवके छह नोकषायोंकी क्षपणामें जितना काल लगे उतना इस स्थानका उत्कृष्ट काल लेना चाहिये। ६३७५. अब आठ प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका व्याख्यान करते हैं। यथा-जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव दो प्रकारके मानका उपशम करके एक समयके लिये आठ प्रकृतियोंका संक्रामक हो कर और दूसरे समयमें मर कर देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके प्रकृत स्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। अब जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उत्कृष्ट काल कहा है उसका दृष्टान्त देते हैं जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव क्रमसे नौ नोकपाय और तीन प्रकारके क्रोधका उपशम करके आठ प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया है। फिर वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर जो दो प्रकारके मानका उपशम हो जाने पर छह प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया है उसके दो प्रकारके मानके उपशम करने में जितना काल लगता है तत्प्रमाण विवक्षित संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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