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________________ १८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [बंधगो ६ ३७०. संपहि अट्ठारससंकमट्ठाणस्स जहण्णुकस्सकालपरूपणा कीरदे । तं जहाइगिवीससंतकम्मिओवसामओ णqसय-इत्थिवेदमुवसामिय एयसमयमद्वारससंकामओ होऊण तदणंतरसमए कालं काढूण देवेसुववन्जिय इगिवीससंकामओ जादो लद्धो पयदसंकमट्ठाणजहण्णकालो। तस्सेव जाव छण्णोकसाया अणुवसंता ताव तदुवसामणकालो सव्वो चेय पयदुकस्सकालो होइ। ३७१. संपहि तेरससंकमाणस्स जहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कीरदे-चउवीससंतकम्मिओवसामओ जहाकम णवणोकसाए उवसामिय एयसमयं तेरससंकामओ जादो । तदणंतरसमए कालं काऊण तेवीससंकामओ जादो तस्स पयदजहण्णकालो होइ । खवगो अट्ठकसाए खविय जाव आणुपुव्वीसंकमं गाढवेइ ताव पयदुक्कस्सकालो घेतव्यो । ३७२. संपहि बारससंकमट्ठाणजहण्णुकस्सकालपरूवणा कीरदे । तं जहाइगिवीससंतकम्मिओवसामगो जहाकममुवसामिदट्ठणोकसाओ एयसमयबारससंकामओ जादो । विदियसमए कालं कादण देवेसुचवण्णो इगिवीससंकामओ जादो। लद्धो एगसमओ। उकस्सेणंतोमुहुत्तमेत्तकालपरूवणोदाहरणं-एगो संजदो चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुट्टिदो आणुपुव्वीसंकमे कादूण तदो जाव णवंसयवेदं ण खवेइ ताव विवक्खियसकमट्ठाणुकस्सकालो होइ। ६३७०. अब अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करते हैं। यथा-जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव नपुसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम करके एक समयके लिये अठारह प्रकृतियोंका संक्रामक हो कर तदनन्तर समयमें मर कर और देवोंमें उत्पन्न हो कर इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया उसके प्रकृत स्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। तथा उसीके जबतक छह नोकषायोंका उपशम नहीं हुआ तब तक उपशममें लगनेवाला जितना भी काल है वह प्रकृत स्थानका उत्कृष्ट काल होता है। ३७१. अब तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करते हैंचौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशामक जीव क्रमसे नौ नोकषायोंका उपशम करके एक समयके लिये तेरह प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ और तदनन्तर समयमें मरकर तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ उसके प्रकृत स्थानका जघन्य काल प्राप्त होता है। तथा जो क्षपक जीव आठ कषायोंका क्षय करके जब तक आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ नहीं करता है तब तक प्रकृत स्थानका उत्कृष्ट काल ग्रहण करना चाहिये। ६३७२. अब बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करते हैं। यथा-जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव क्रमसे आठ कषायोंका उपशम करके एक समयके लिये बारह प्रकृतियों का संक्रामक हो गया और दूसरे समयमें मर कर तथा देव होकर इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया उसके उक्त स्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। अब इस स्थानका उत्कृष्ट काल जो अन्तमुहूर्त कहा है उसका उदाहरण यह है-कोई एक संयत जीव चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर और आनुपूर्वी संक्रमको करके अनन्तर जब तक नपुसकवेदका क्षय नहीं करता है तब तक विवक्षित संक्रमस्थानका उत्कृष्ट काल होता है। १. श्रा प्रतौ -ट्ठाणस्स कालपरूवणा इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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