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________________ १८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ * उकस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३६६. तं जहा—एओ मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय उवसमसम्मत्तकालभंतरे चेय अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय अंतोमुहुत्तकालं तेवीससंक्रममणुपालिय वेदयसम्मत्तमुवणमिय छावद्विसागरोवमाणि परिभमिय तदवसाणे दंसणमोहक्खवणाए परिणमिदो मिच्छत्तं खविय वावीससंकामओ जादो । तदो पुविल्लेणुवसमसम्मत्तकालभंतरभाविणा अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तचरिमफालिपदणादो उवरिमकदकरणिज्जचरिमसमयपञ्जत्तंतोमुहत्तणेण सादिरेयाणि छावढिसागरोवमाणि तेवीससंकामयस्स उक्कस्सकालो होइ । * वावीसाए वीसाए एगूणवीसाए अट्ठारसण्हं तेरसएहं बारसण्हं एक्कारसाहं दसराहं अहण्हं सत्तण्हं पंचण्हं चउण्हं तिएहं दोण्हं पि कालो जहणणेण एयसमग्रो, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। ३६७. वावीसाए ताव उच्चदे-एओ चउवीससंतकम्मिओ उवसमसेटिं चढिय अंतरकरणाणंतरमाणुपुव्वीसंकमण परिणदो एयसमयं वावीससंकामगो होदण विदियसमए कालं काऊण देवेसुववज्जिय तेवीससंकामओ जादो । एसो वावीसाए जहण्णकालो। * उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। ६३६६. खुलासा इस प्रकार है- कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके उपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त काल तक तेईसप्रक्रतिक संक्रमस्थानको प्राप्त हश्रा। पनः वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हो मिथ्यात्वका क्षय करके बाईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार इस जीवके जो पूर्वोक्त उपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हुआ है उसमेंसे मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पतन समयसे लेकर कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समय तकका जितना काल है उसे घटा देने पर जो शेष काल बचता है उससे अधिक छयासठ सागर काल तेईस प्रकृतिक संक्रामकका उत्कृष्ट काल होता है। * बाईस, बीस, उन्नीस, अठारह, तेरह, बारह, ग्यारह, दस, आठ, सात, पाँच, चार, तीन और दो प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। ३६७. सर्व प्रथम बाईस प्रकृतियोंके संक्रामकके कालका कथन करते हैं-कोई एक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ा और अन्तरकरणके बाद आनुपूर्वी संक्रमसे परिणत होकर एक समय तक बाईस प्रकृतियोंका संक्रामक हुआ। पुनः दूसरे समयमें मरकर और देवोंमें उत्पन्न होकर तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार यह बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल है। अब इस स्थानका अन्तमुहूर्त प्रमाण जो उत्कृष्ट काल है उसका दृष्टान्त देते हैं-कोई एक दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाला जीव मिथ्यात्वका क्षय करके १. ता० -श्रा०प्रत्योः चदुवावीससंकामो इति पाठः । २. ता प्रतौ एयसमत्रो (ए) इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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