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________________ गा० ५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण कालो १८५ सम्मामिच्छत्ताणि उद्वेल्लिय पणुवीससंकामओ जादो। पुणो उवड्डपोगलपरियट्ट परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स ताधे पणुवीससंकमो णस्सदि त्ति पयदुक्कस्सकालो लद्धो । संपहि तेवीससंकमट्ठाणस्स जहण्णुक्कस्सकालणिहालणडमुत्तरं पबंधमाह... तेवीसाए संकामो केवचिरं कालादो होइ । ६ ३६४. सुगमं ॐ जहणणेण अंतोमुहुत्तं, एयसमो वा। ३६५. एत्थ ताव अंतोमुहुत्तपरूवणा कीरदे। तं जहा—उवसमसम्माइट्ठी अणंताणु० विसंजोइय तेवीससंकामओ जादो । तदो जहण्णमंतोमुहुत्तकालमच्छिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए सासणगुणं पडिवञ्जिय इगिवीससंकामओ जादो तस्स लद्धो तेवीससंकमजहण्णकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो। संपहि एयसमयपरूवणा कीरदे । तं जहा—एगो चउवीससंतकम्मिओ उवसमसम्माइट्ठी समयूणावलियमेत्तावसेसाए उवसमसम्मत्तद्वाए सासणसम्मत्तं पडिवण्णो इगिवीससंकामओ जादो। कमेण मिच्छत्तमुवगओ एगसमयं तेवीससंकामओ होदण तदणंतरसमयम्मि अणंताणुबंधिसंकमणावसेण सत्तावीससंकामओ जादो लद्धो एयसमयमेत्तो पयदजहण्णकालो। सम्यग्मिथ्यात्वको उद्लना करके पच्चीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। पुनः उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके जब संसारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रह गया तब सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उसके उस समय पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान नष्ट हो जाता है, इसलिये उस जीवके प्रकृत उत्कृष्ट काल प्राप्त हुआ। अब तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विचार करनेके लिये आगेकी सूत्ररचनाका निर्देश करते हैं * तेईस प्रकृतिक संक्रामकका कितना काल है ? ६३६४. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय है। 5 ३६५. यहाँ सर्व प्रथम अन्तर्मुहूर्तकालका कथन करते हैं। यथा-कोई एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। अनन्तर जघन्य अन्तर्मुहूत काल तक वहाँ रहा और उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया उसके तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूते प्राप्त हुआ। अब जघन्य काल एक समयका कथन करते हैं। यथा-कोई एक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय कम एक आवलि शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया पुनः क्रमसे मिथ्यात्वमें जाकर और एक समय तक तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक होकर तदनन्तर समयमें अनन्तानुबन्धियोंका संक्रम होने लगनेके कारण सत्ताईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया उसके प्रकृत जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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