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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ वावीससंतकम्मेण सह गदे इगिवीससंकमट्ठाणमेक्कं चेव होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो । पुणो इगिवीससंतं सत्तारसबंधो च होऊण इगिवीससंकमट्ठाणमेक्कं चेव लब्भइ, णस्थि अण्णो वियप्पो । एवमुवरिमबंधट्ठाणेसु वि जहासंभवं संतकम्मट्ठाणविसेसिदेसु पादेक्कं संकमट्ठाणसंभवो गवेसणिज्जो । ६३४१. संपहि अण्णो दुसंजोगपयारो उच्चदे। तं जहा—'बंधेण य संकमट्ठाणे' बंधडाणेहि सह संकमट्ठाणाणि समाणय ? कम्हि ति पुच्छिदे कम्मंसियट्ठाणेसु त्ति अहिसंबंधो कायव्यो । संतकम्मियट्ठाणाणि आहारभूदाणि ठविय तेसु बंध-संकमट्ठाणाणं दुसंजोगो णेदव्यो त्ति उत्तं होइ । एदं च देसामासयं तेण बंधट्ठाणेसु संत-संकमट्ठाणाणं दुसंजोगो समाणेयव्यो, संकमट्ठाणेसु च बंध-संतद्वाणाणं दुसंजोगो सम्ममाणुपुब्बीए णेदव्यो त्ति । ३४२. एत्थ ताव संतकम्मट्ठाणेसु बंध-संकमट्ठाणाणं दुसंजोगस्स समाणा विही उच्चदे। तं जहा-अट्ठावोससंतकम्ममाहारं काऊण २२, २१, १७, १३, ९ बंधट्ठाणाणि २७, २६, २५, २३, २१ एदाणि च संकमट्ठाणाणि लब्भंति । सत्तावीससंतकम्मे णिरुद्वे २२ बंधो २६, २५ संकलो च लभइ। छब्बीससंतकम्मम्मि वावीसबंधो पणुवोससंकमो च लभइ । एवमुवरिमसंतकम्मट्ठाणेसु वि जहासंभवं बंध-संकमट्ठाणाणं दुसंजोगो अणुगंतव्यो । स्थानके प्राप्त होने पर इक्कीस प्रकृतिक एक ही संक्रमस्थान होता है, क्योंकि यहाँ पर और कोई दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । पुनः इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान होकर इकोस प्रकृतिक एक ही संक्रमस्थान प्राप्त होता है, क्योंकि यहाँ अन्य विकल्प सम्भव नहीं है। इसी प्रकार यथासम्भव सत्कर्मस्थानोंसे युक्त आगेके बन्धस्थानोंमें भी अलग अलग संक्रमस्थानोंका विचार कर लेना चाहिये। ३४१. अब अन्य प्रकारसे दो संयोगी प्रकारका कथन करते हैं। यथा-'बंधेण य संकमाणे' वन्धस्थानों के साथ संक्रमस्थानोंको ले आना चाहिये। कहाँ ले आना चाहिए ? सत्कर्मस्थानोंमें ऐला यहाँ सम्बन्ध कर लेना चाहिये । अर्थात् सत्कर्मस्थानोंको आधार रूपसे स्थापित कर उनमें बन्धस्थानों और संक्रमस्थानोंके दो संयोगको घटित कर लेना चाहिये यह उक्त कथन का तात्पर्य है। यतः यह वचन देशामर्षक है अतः बन्धस्थानों में सत्कर्मस्थानों और संक्रमस्थानोंका दो संयोग घटित कर लेना चाहिये। तथा संक्रमस्थानोंमें बन्धस्थानों और सत्कर्मस्थानोंका दो संयोग भले प्रकार आनुपूर्वीकमसे घटित कर लेना चाहिये। ३४२. यहाँ सर्व प्रथम सत्कर्मस्थानों में बन्धस्थानों और संक्रमस्थानोंके दो संयोगको घटित कर लेनेकी विधि कहते हैं । यथा-अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानको आधार करके २२, २१, १७, १३ और ९ प्रकृतिक ये पाँच बन्धस्थान ओर २७, २६, २५, २३ और २१ प्रकृतिक ये पाँच संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। सत्ताईत प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके रहते हुए २२ प्रकृतिक बन्धस्थान तथा २६ और २५ प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। छब्बीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके रहते हुए बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान और पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगेके सत्कर्मस्थानोंमें भी यथासम्भव बन्धस्थानों और संक्रमस्थानोंके दो संयोगको जान लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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