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________________ गा०५६ ] बंध-संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा छब्बीस-तेवीससण्णिदाणि तिण्णि संकमट्ठाणाणि लब्भंति २७, २६, २३ । उवरिमबंधट्ठाणेसु णिरुद्धसंतकम्मट्ठाणसंभवो पत्थि । एवमेदेण कमेण एक्के कसंतकम्मट्ठाणं जहासंभवं सबबंधट्ठाणेसु संजोजिय तत्थ संकमट्ठाणाणमियत्तासंभवो मग्गणिज्जो । अधवा बंधट्ठाणं धुवं कादूण जहासंभवसंतकम्मट्ठाणेसु संजोजिय तत्थ संभवंताणं संकमट्ठाणाणं गवसणा कायव्वा । तं कधं ? अट्ठावीससंतकम्मं वावीसबंधट्ठाणं च होऊण २७, २६, २३' एदाणि तिणि संकमट्ठाणाणि भवंति । तम्मि चेव बंधट्ठाणे सत्तावीससंतकम्मसहगए २६, २५ एदाणि दोणि संकमट्ठाणाणि भवंति । छव्वीससंतं वावीसबंधो च होऊण पणुवीससंकमट्ठाणमेक्कं चेव लब्भइ २५। एवं वावीसबंधसहगएसु संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा कया । ३४०. संपहि इगिवीसबंधट्ठाणमट्ठावीससंतकम्मं च होऊण पणुवीस-इगिवीससण्णिदाणि दोणि संकमट्ठाणाणि भवंति २५, २१ । इगिवीसबंधट्ठाणे गिरुद्धे णस्थि अण्णो संतकम्मवियप्पो । अट्ठावीससंतं सत्तारसबंधो च होऊण २७, २६, २५, २३ एदाणि संकमट्ठाणाणि भवंति । चउवीससंतं सत्तारसबंधो च होऊण २३, २२, २१ एदाणि संकमट्ठाणाणि भवंति । पुणो तम्मि चेव बंधट्ठाणे तेवीससंतकम्मट्ठाणेण सह गदे वावीस-इगिवीससंकमट्ठाणाणि लब्भंति २२, २१ । पुणो तम्मि चेव बंधट्ठाणे सत्ताईस, छब्बीस और तेईस प्रकृतिक तीन संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं २७, २६, २३. । उसके भागेके बन्धस्थानों में विवक्षित २८ प्रकृतिक सत्कर्मस्थान सम्भव नहीं है। इस प्रकार इस क्रमसे एक एक सत्कर्मस्थानका यथासम्भव सब बन्धस्थानोंके साथ संयोग करके वहाँ पर संकमस्थानोंके परिमाणका विचार कर लेना चाहिये । अथवा बन्धस्थानको ध्रुव करके और उससे यथासम्भव सत्कर्मस्थानोंका संयोग करके वहाँपर सम्भव संक्रमस्थानोंका विचार कर लेना चाहिये । यथाअट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान होकर २७, २६ और २३ प्रकृतिक ये तीन संक्रमस्थान होते हैं। उसी बन्धस्थानके सत्ताईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके साथ प्राप्त होनेपर २६ और २५ प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान होते हैं। छब्बीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और प्रक्रतिक बन्धस्थान होकर एक पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है २५ । प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ प्राप्त हुए सत्कर्मस्थानोंमें संक्रमस्थानोंका कथन किया । ६३४०. इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान और अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होकर पंच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं २५, २१ । इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थानके सद्भावमें अन्य सत्कर्मस्थानका विकल्प नहीं होता। अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान होकर २७, २६, २५ और २३ प्रकृतिक ये चार संक्रमस्थान होते हैं। चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान और सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान होकर २३, २२ और २१ प्रकृतिक ये तीन संक्रमस्थान होते हैं। पुनः तेईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके साथ उसी बन्धस्थानके प्राप्त होने पर बाईस प्रकृतिक और इक्कोस प्रकृतिक संक्रमस्थान होते हैं २२, २१ । पुनः बाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके साथ उसी बन्ध १. ता प्रतौ २४ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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