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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ३३८. एगपयडिबंधणिरुद्धे पंच संकमट्ठाणाणि लब्भंति । तं जहा-चउवीससंतकम्मियोवसामगस्स दुविहमायोवसमे मायसंजलणणवगबंधेण सह पंचण्हं संकमो १ । मायासंजलणोवसमे चउण्हं संक्रमो २ । इगिवीससंतकम्मियस्स दुविहमायोवसमे मायासंजलणणवकबंधेण सह तिण्हं संकमो ३। तम्हि उवसामिदे दोण्हं संकमो ४ । खवगस्स लोभसंजलणबंधयस्स मायासंजलणसंकमो एको चेव लब्भदे ५। एवं बंधट्ठाणेसु संकमट्ठाणाणं परूवणा कया । ६३३९. एवमेगसंजोगयरूवणं काऊण संपहि 'बंधेण य संकमट्ठाणे' इदि सुत्तावयवमवलंबिय दुसंजोगपरूवणं वत्तइस्सामो । तत्थ ताव बंध-संतढाणाणं' दुसंजोगमाहारभूदं काऊण संकमट्ठाणगवेसमा कोरदे । तं जहा-अट्ठावीससंतकम्मं वावोसबंधट्ठाणं च अण्णोण्णसहगयमाहारभूदं कादण एदाणि संकमट्ठाणाणि भवंति २७, २६, २३ । पुणो अट्ठावीससंतकम्ममिगिवीसबंधट्ठाणं च सहभूदमाधारं काऊण पणुवीस-इगिवीससण्णिदाणि दोण्णि संकमाणाणि लब्भंति २५, २१ । तं चेव संतहाणं सत्तारसबंधसहगदमस्सिऊण २७, २६, २५, २३ एदाणि चत्तारि संकमट्ठाणाणि संभवंति । तम्मि चेव कम्मंसियट्ठाणम्मि तेरस-णवविहबंधवागसहगयम्मि पादेक्कं सत्तावीस भी छह ही संक्रमस्थान सम्भव जानने चाहिये । ६३३८. एक प्रकृतिक बन्धस्थानके सद्भावमें पाँच संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। यथाचौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके दो प्रकारको मायाका उपशम हो जाने पर मायासंघलनके नवक बन्धके साथ पाँच प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । मायासंज्वलनके उपशम हो जाने पर चार प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारकी मायाका उपशम हो जाने पर मायासंज्वलनके नवकवन्धके साथ तोन प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३। नवकवन्धका उपशम कर देने पर दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । तथा क्षपक जीवके लोभसंज्वलनका बन्ध होते हुए मायासंघलनका संक्रमरूप एक ही संक्रमस्थान प्राप्त होता है ५ । इस प्रकार बन्धस्थानों में संक्रमस्थानोंका कथन किया। ६ ३३६. इस प्रकार एकसंयोगी भंगोंका कथन करके अब 'बन्धेण य संकमट्ठाणे' इस सूत्र वचनका अवलम्बन लेकर दो संयोगी स्थानोंका कथन करते हैं। उसमें भी बन्धस्थान और सत्कर्मस्थान इन दोनोंके संयोगको आधारभूत मानकर संक्रमस्थानोंका विचार करते हैं। यथाअट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान इन दोनोंके परस्पर संयोगको आधारभूत करके २७, २६ और २३ प्रकृतिक ये तीन संक्रमस्थान होते हैं। पुनः अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान और इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान इन दोनों के संयोगको आधारभूत करके पच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक दो संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं २५, २१। उसी सत्कर्मस्थानको सत्रहप्रकृतिक बन्धस्थानके साथ प्राप्त करके २५, २६, २५ और २३ प्रकृतिक ये चार संकमस्थान सम्भव हैं। तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानोंके साथ प्राप्त हुए उसी सत्कर्मस्थानके सद्भावमें प्रत्येकमें १. ता०-पा० प्रत्योः ताव संकमट्ठाणाणं इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ संकमहाणं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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