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________________ गा० ५६] बंधट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा १७१ लंभादो। सेसवेदोदयविवक्खाए पुण तिपुरिससंबंधेण वीसट्ठारसादिसंकमट्ठाणाणं संभवो अणुगंतव्वो। ३३६. संपहि तिविहबंधट्ठाणे संकमट्ठाणाणं परूवणा कीरदे-चउवीससंतकम्मिएण कोहसंजलणबंधवोच्छेदे कदे सेससंजलणतियबंधाहिट्ठियमेकारससंकमट्ठाणं होइ १ । कोहसंजलणे उवसामिदे दससंकमो जायदे २ । इगिवीससंतकम्मिएण दुविहकोहोवसमे कदे णवण्हं संकमो होइ ३। कोहसंजलणे उवसामिदे अट्ठण्हं संकमो होइ ४ । खवगेण कोहसंजलणबंधवोच्छेदे कदे तिण्हं संकमो , कोहसंजलणणवकबंधसंकामयम्मि तदुवलंभादो ५। तेणेव कोहसंजलणे णिसंतीकए दोण्हं संकमट्ठाणमुप्पजदि ६ । __३३७. संपहि दुविहबंधयस्स उच्चदे-चउवीससंतकम्मियोवसामयेण दुविहमाणोवसमे कदे अट्ठण्हं संकमट्ठाणमुवजायदे १ । तेणेव माणसंजलणोवसमे कदे सत्तण्हं संकमो जायदे २ । इगिवीससंतकम्मियोवसामगेण दुविहमाणोवसमे कदे छण्हं संकमो होइ ३। माणसंजलणोवसमे कदे पंचण्हं संकमो जायदे ४ । खवगेण माणसंजलणबंधवोच्छेदे कदे तण्णवक्रबंधसंकममस्सिऊण दोण्हं संकमो होइ ५। तम्मि चेव णिस्संतीकए एकिस्से संकमो जायदे ६ । एवमेत्थ वि छण्हं संकमट्ठाणाणं संभवो दहव्वो। अन्य संक्रमस्थानोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। किन्तु शेष वेदोंके उदयकी विविक्षा होनेपर तो तोन पुरुषों के सम्बन्धसे बीस, अठारह आदि संक्रमस्थान सम्भव है इसका विचार कर लेना चाहिए। $३३६. अब तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें संक्रमस्थानोंका कथन करते हैं-चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले जीवके द्वारा क्रोधसंचलनकी बन्धव्युच्छित्ति कर देने पर शेष संज्वलनसम्बन्धी तीन प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १। क्रोधसंज्वलनका उपशम कर देने पर दस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जोवके द्वारा दो प्रकारके क्रोधका उपशम कर देने पर नौ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । क्रोधसंज्वलनका उपशम कर देने पर आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४। क्षपक जीवके द्वारा क्रोधसंज्वलनकी बन्धब्युच्छित्ति कर देने पर तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि क्रोध संज्वलनके नवक बन्धके संक्रम करने पर इस स्थानकी उपलब्धि होती है ५। इसी जीवके द्वारा क्रोध संज्वलनके निःसत्त्व कर देने पर दो प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । ६३३७. अब दो प्रकृतिक बन्धस्थानवाले जीवके संक्रमस्थान बतलाते हैं-चौबीस प्रक्रतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके द्वारा दो प्रकारके मानका उपशम कर देने पर आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान ऊत्पन्न होता है । उसी जीवके द्वारा मानसंज्वलनका उपसम कर देने पर सात प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २। इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामकके द्वारा दो प्रकारके मानका उपशम कर देने पर छह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । मानसंज्वलनका उपशम कर देने पर पाँच प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४। क्षपकके द्वारा मानसंज्वलनको बन्धव्युच्छित्ति कर देने पर उसके नयकवन्धके संक्रमके आश्रयसे दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । उसो नाक पन्धके निःसत्व कर देने पर एक प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इस प्रकार यहाँपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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