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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ३३४. चउत्रीससंतकम्मियाणियट्टिगुणहाणम्मि पंचपयडिबंधट्ठाणेण सह तेवीससंकमो होइ १। तत्थेवाणुपुव्वीसंकमवसेण वावीससंकमो होइ २ । णवंसयवेदोवसामणाए इगिवीससंकमो ३ । इत्थिवेदोवसामणाए वीससंकमो होइ ४ । पुणो इगिवीससंतकम्मिओवसामगेणाणुपुव्वीसंकमं काऊण णqसयवेदे उवसामिदे एगूणवीसं संकमो होइ ५। तेणेव इत्थिवेदे उवसामिदे अट्ठारससंकमो होइ ६ । खवगेण अट्ठकसाएसु खविदेसु तेरससंकमो जायदे ७ । अंतरकरणं करिय आणुपुव्वीसंकमे कदे बारससंकमो होइ ८ । णवूसयवेदे खविदे एकारससंकमो जायदे ९। इत्थिवेदक्खवणाए दससंकमो जायदे १० । एवं पंचपयडिबंधट्ठाणम्मि दस संकमट्ठाणाणि भवति । ३३५. संपहि चउण्हं बंधट्ठाणम्मि संकमट्ठाणगवेसणा कीरदे-चउवीससंतकम्मियोवसामगेण छण्णोकसायाणमुवसामणाए कदाए णिरुद्धबंधट्ठाणेण सह चोदससंकमट्ठाणमुप्पजइ १, तदवत्थाए पुरिसवेदबंधुवरमदंसणादो । तत्थेव पुरिसवेदे उवसामिदे तेरससंकमो जायदे २ । इगिवीससंतकम्मिएण छण्णोकसाएसु उवसामिदेसु बारससंकमो होइ ३ । पुरिसवेदोवसमे एकारससंकमो होइ ४ । खवगेण छण्णोकसाएसु खविदेसु चउण्हं संकमो होइ ५। पुरिसवेदे खविदे तिण्हं संकमो जायदे ६। एवं चउन्धिहबंधगम्नि छच्चेव संकमट्ठाणाणि भवंति, पुरिसवेदोदए णिरुद्धे अण्णेसिमणुव ३३४. चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण गुणस्थ नमें पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १। वहीं पर आनुपूर्वी संक्रमके कारण बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । नपुंसकवेदका उपसम हो जाने पर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । स्त्रीवेदका उपसम हो जाने पर बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान हे ता है ४ । फिर इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके द्वारा आनुपूत्री संक्रमका प्रारम्भ करनेके बाद नपुसकवेदका उपशम कर लेने पर उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ५। उसीके द्वारा स्त्रीवेदका उपशम कर देने पर अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ६ । क्षपकके द्वारा आठ कषायोंका क्षय कर देने पर तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । अन्तरकरण करनेके बाद आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ कर लेने पर बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ८ । नपुसकवेदका क्षय कर देनेपर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ९। स्त्रीवेदका क्षय कर देनेपर दस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १० । इस प्रकार पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानमें दस संक्रमस्थान होते हैं। ६३३५. अब चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें संक्रमस्थानोंका विचार करते हैं-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके द्वारा छह नोकषायोंका उपशम कर लेने पर विवक्षित बन्धस्थानके साथ चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है १, क्योंकि इस अवस्थामें पुरुषवेदके बन्धका अभाव देखा जाता है। वहीं पर पुरुषवेदका उपशम हो जाने पर तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके द्वारा छह नोकषायोंका उपसम कर देने पर बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । पुरुषवेदका उपशम हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । क्षपकके द्वारा छह नोकषायोंका क्षय कर देने पर चार प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ५। पुरुषवेदका क्षय कर देने पर तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इस प्रकार चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें छह ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि पुरुषवेदके उदयके सद्भावमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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