SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ५६ ] बंधट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूत्रणा १६६ तेवीससंकमो जायदे ५ । तेणेव इत्थिवेदे उवसमिदे मिच्छत्तक्खवणमस्सियूण वावीससंकमो होदि ६ । तेणेव सम्मामिच्छत्ते खविदे इगिवीससंकमो जायदे । एवं सव्वसमुच्चएण सत्तारसबंधट्ठाणम्मि छच्चेव संकमट्ठाणाणि भवंति । __३३२. संजदासंजदम्मि तेरसबंधो होऊण सत्तावीससंकमो होइ १ । तस्सेव पढमसम्मत्तविसेसिदसंजमासंजमग्गहणपढमसमयम्मि वट्टमाणस्स छब्बीससंकमो होइ २। विसंजोइदाणताणु० चउकस्स तेवीससंकमो जायदे ३ । तेणेव मिच्छत्ते खविदे वावीससंकमो होइ ४ । सम्मामिच्छत्ते खविदे इगिवीससंकमो जायदे ५ । एवं तेरसबंधम्मि णिरुद्धे पंचसंकमट्ठाणाणि भवंति । ६३३३. पमत्तापमत्तसंजदेसु णवपयडिबंधट्टाणं होऊण सत्तावीससंकमो होइ १ । अप्पमत्तभावेणोवसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णस्स पढमसमए णवबंधट्ठाणेण सह छब्बीससंकमो होइ २ । अणंताणु विसंजोयणापरिणदपमत्तापमत्तसंजदाणं तेणेव बंधट्टाणेणाणुविद्धं तेवीससंकमट्ठाणं होइ ३। तत्थेव मिच्छत्तक्खवणमस्सियूण वावीससंकमट्ठाणोवलद्धी ४ । सम्मामिच्छत्तक्खवणमवलंबिय इगिवीससंकमट्ठाणसमुवलंभो ५ । एवं णवबंधट्ठाणम्मि पंचेव संकमट्ठाणाणि लन्भंति । संक्रमस्थान होता है ५। मिथ्यात्वके क्षयका आश्रय करके बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । उसी जीवके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार सब मिलाकर सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानमें छह ही संक्रमस्थान होते हैं । ६३३२. संयतासंयत गुणस्थानमें तेरहप्रकृतिक बन्धस्थान होकर सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । प्रथम सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें विद्यमान उस जीवके छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके स्थित हुए उसी जीवके तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३ । उसी जीवके द्वारा मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर बाईसप्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ४ । सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इस प्रकार तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हए पाँच संक्रमस्थान होते हैं। ३३३३. प्रमत्तसंयत और अप्रमसंयत गुणस्थानमें नौ प्रकृतिक बन्धस्थान होकर सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है १ । अप्रमत्तभावके साथ उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम समयमें नौ प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनारूपसे परिणत हुए प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके उसी बन्धस्थानसे अनुबिद्ध तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ३। वहीं पर मिथ्यात्वके क्षयका आश्रय कर बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है ४ । तथा सम्यग्मिथ्यात्वके क्षयका अवलम्बन कर इक्कीसप्रकृतिक संक्रमस्थान उपलब्ध होता है। इस प्रकार नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें पाँच ही संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं। १. ता. प्रतौ जायदे ५ । तेणेव इत्थिवेदे उवसामिदे इति पाठः । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy