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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ कया। एवं पइण्णं काऊण कोहादिसु चदुसु कसाएसु परिवाडीए संकमट्ठाणगवेसणा कीरदे । एत्थे जहासंखणाएणाहिसंबंधो कायव्यो त्ति जाणावणट्ठमाणुपुवीए ति उत्तं । तं जहा-कोहकसायम्मि सोलस संकमट्ठाणाणि होति, माणकसायोदयम्मि ऊणवीस संकमट्ठाणाणि भवंति, सेसेसु दोसु वि कसाओवजोगेसु पादेक्कं तेवीससंकमट्ठाणाणि भवंति त्ति । तत्थ ताव कोहकसायम्मि सोलसण्हं संकमट्ठाणाणं संभवो उच्चदे । तं जहा-सत्तावीसादीणि इगिवीसपजंताणि संकमट्ठाणाणि सेढीदो हेट्ठा चेव मिच्छाइट्टिआदिगुणट्ठाणेसु जहासंभवं लब्भंति । पुणो चउवीससंतकम्मियोवसामगस्स कोहकसायोदएण उवसमसेढिं चढिदस्स तेवीस-वावीस-इगिवीससंकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि होदूण पुणो वीस-चोदस-तेरससंकमट्ठाणाणि लब्भंति णाण्णाणि, कोहकसायम्मि णिरुद्ध एत्तो उवरिमाणमसंभवादो। इगिवीससंतकम्मियोवसामगमस्सियूण पुण एगूणवीसट्ठारस-बारसेक्कारससंकमट्ठाणाणि लब्भंति, हेट्ठिमाणं पुणरुत्ताणमसंगहादो । उवरिमाणं चणिरुद्धकसायोदयम्मि संभवाभावादो। खवगस्स वि णिरुद्धकसायोदइल्लस्स दसचउक्क-तियसंकमट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लब्भंति, हेडिमोवरिमाणं पुव्वुत्तण्णाएण बहिब्भावदंसणादो। एवमेदाणि सोलस संकमट्ठाणाणि कोहकसायम्मि लभंति त्ति सिद्धं प्रकारकी प्रतिज्ञा करके क्रोधादि चार कषायोंमें क्रमसे संक्रमस्थानोंका विचार करते हैं। यहां 'यथासंख्य, न्यायके अनुसार पदोंका सम्बन्ध करना चाहिये यह जतानेके लिये सूत्र में 'आनुपूर्वी पद कहा है। खुलासा इस प्रकार है-क्रोध कषायमें सोलह संक्रमस्थान होते हैं, मान कषायके उदयमें उन्नीस संक्रमस्थान होते हैं तथा शेष दो कषायोंके सद्भाव में भी प्रत्येकमें तेईस संक्रमस्थान होते हैं। अब सर्वप्रथम क्रोध कषायमें सोलह संक्रमस्थानोंका सद्भाव बतलाते हैं। यथा-सत्ताईससे लेकर इक्कीस तक जितने भी संक्रमस्थान हैं वे श्रेणि चढ़नेके पूर्व ही मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें यथासम्भव पाये जाते हैं। फिर जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव क्रोध कषायके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ा है उसके यद्यपि तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक तीन संक्रमस्थान पुनरुक्त होते हैं तथापि बीस, चौदह और तेरह ये तीन संक्रमस्थान अपुनरुक्त प्राप्त होते हैं। इसके इनके अतिरिक्त अन्य संक्रमस्थान नहीं प्राप्त होते, क्योंकि क्रोध कषायके रहते हुए इनसे आगेके स्थानोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामकके आश्रयसे मात्र उन्नीस, अठारह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक चार संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनसे पर्वके संक्रमस्थान पुनरुक्त होनेसे उनका यहाँपर संग्रह नहीं किया गया है । और ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानसे आगेके संक्रमस्थान विवक्षित कषायके उदयमें सम्भव नहीं हैं। इसी प्रकार क्षपकके भी विवक्षित कषायका उदय रहते हुए दस, चार और तीन प्रकृतिक अपुनरुक्त संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त न्यायके अनुसार नीचे और ऊपरके संक्रमस्थानोंका संग्रह न करके उन्हें अलग कर दिया है। अर्थात् दस प्रकृतिक संक्रमस्थान से पर्वके जितने संक्रमस्थान यहाँ सम्भव हैं वे तो पुनरुक्त समझ कर छोड़ दिये गये हैं और तीन प्रकृतिक संक्रमस्थानसे आगेके संक्रमस्थानोंका यहाँ पाया जाना सम्भव न होनेसे उन्हें छोड़ दिया है। इस प्रकार क्रोधकषायमें १. ता-या प्रत्योः जत्थ इति पाठः। २. ता०प्रतौ पजत्ताणि अा प्रतौ पजत्ताणि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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