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________________ गा०४७-४८ ] मग्गणाट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा . १५९ २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ४, ३ । ३०९. माणकसायोदए वि एदाणि चेव णवट्ठ-दोपयडिसंकमट्ठाणब्भहियाणि एगूणवीससंखाविसेसियाणि होति, इगिवीससंतकम्मियोवसामगम्मि दुविह[कोह कोह संजलणोवसामणपरिणदम्मि जहाकम माणोदएण सह णवट्ठपयडिसंकमट्ठाणोवलंभादो । खवगस्स च कोहसंजलणपरिक्खए दोण्हं पयडीणं संकंतिदसणादो। एवं माणकसायोदयम्मि एगूणवीससंकमट्ठाणाणि होति ण सेसाणि, तेसिमेत्थ सुण्णट्ठाणत्तोवएसादो। सेसकसाएसु दोसु वि पादेक्कं तेवीस संकमट्ठाणाणि होति, तेसिं तत्थ संभवे विरोहाभावादो। एत्थाकसाईसु संकमट्ठाणमेक्कं चेव लब्भदे, चउवीससंतकम्मियोवसामगस्स उवसंतकसायगुणट्ठाणम्मि दोण्हं पयडीणं संकमोवलंभादो ॥२०॥ ३१०. एवं कसायमग्गणं समाणिय णाणमग्गणागयविसेसपदुप्पायणमुत्तरसुत्तमाह-'णाणम्हि य तेवीसा०' एत्थ तिविहणाणग्गहणेण मदि-सुदोहिणाणाणं संगहो कायव्यो, तेवीससंकमट्ठाणाहाराणमण्णेसिमसंभवादो' । कथमेत्थ पणुवीससंकमट्ठाणसंभवो त्ति णासंकियव्वं, सम्मामिच्छाइट्ठिम्मि तदुवलंभसंभवादो। कधं ये सोलह संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं यह सिद्ध होता है-२७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०,४ और ३। ३०९. मान कषायके उदयमें भी सोलह तो ये ही तथा नौ, आठ और दो प्रकृतिक तीन और इस प्रकार कुल उन्नीस संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव दो प्रकारके क्रोध और क्रोधसंज्वलनका उपशम कर देता है उसके क्रमसे मानकषायका उदय रहते हुए नौ प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान पाये जाते हैं। तथा क्षपकके क्रोधसंज्वलनका क्षय हो जानेपर दो प्रकृतिक संक्रमस्थान देखा जाता है। इस प्रकार मानकषायका उदय रहते हुए केवल उन्नीस संक्रमस्थान होते हैं शेष संक्रमस्थान नहीं होते, क्योंकि यहाँ उनका अभाव देखा जाता है ऐसा उपदेश है। शेष दो कषायोंके सद्भावमें भी प्रत्येकमें तेईस संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि उनके वहाँ होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यहाँ पर कषाय रहित जीवोंके संक्रमस्थान एक ही उपलब्ध होता है, क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके उपशान्तकषाय गुणस्थानमें केवल दो प्रकृतियोंका संक्रम पाया जाता है ॥२०॥ ३१०. इस प्रकार कषायमार्गणाका कथन समाप्त करके अब ज्ञानमार्गणा सम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-'णाणम्हि य तेवीसा.' इस गाथा सूत्रमें तीन प्रकारके ज्ञानका ग्रहण करनेसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानोंका संग्रह करना चाहिये, क्योंकि तेईस संक्रमस्थानोंका आधार अन्य ज्ञान नहीं हो सकते। शंका-इन तीन ज्ञानोंमें पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें उसकी उपलब्धि होती है। १. ता प्रतौ -राणमसंभवादो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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