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________________ गा० ४६] मग्गणहाणेसु संकमट्ठाणादिपरूवणा बारससंकमट्ठाणमुप्पजइ । एवं पयदमग्गणाविसए णव णेव संकमट्ठाणाणि होति ति सिद्धं–२७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १३, १२ । सेसाणमेत्थ संभवो णत्थि । ३०७. इत्थिवेदम्मि एकारससंकमट्ठाणाणि होति त्ति तदियं सुत्तावयवमस्सियूण संकमट्ठाणाणमेवं चैव परूवणा कायब्वा । णवरि णqसयवेदपडिबद्धणवसंकमट्ठाणाणमुवरि एगूणवीसेक्कारससंकमट्ठाणाणमहियाणमुवलंभो वत्तव्यो, इगिवीससंतकम्मिओक्सामग-खवगेसु णिरुद्धवेदोदएण णqसयवेदोवसामण-क्खवणपरिणदेसु जहाकमं तदुवलंभादो। पुरिसवेदोदयम्मि तेरससंकमट्ठाणाण परूवयस्स चउत्थसुत्ताक्यवस्स वि परूवणाए एसो चेव कमो । णवरि दोण्हमपुव्वसंकमट्ठाणाणमुवलंभो एत्थ वत्तव्यो, इगिवीससंतकम्मियोवसामग-खवगेसु पयदवेदोदएणित्थिवेदोवसामण-खवणवावदेसु जहाकममहारस-दससंकमट्ठाणाणं एत्थ संभवोवलंभादो ॥१९॥ ३०८. एवं वेदमग्गणाए संकमट्ठाणाणमणुगम काऊण संपहि कसायमग्गणाविसए तदणुगमं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ-'कोहादी उवजोगे.' एत्थ कोहादी उवजोगे त्ति वयणेण कसायमग्गणाए संकमट्ठाणाणं परूवणं कस्सामो त्ति पइज्जा प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है। तथा उसीके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ हो जानेपर बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है । इस प्रकार प्रकृत मार्गणामें नौ ही संक्रमस्थान होते हैं यह बात सिद्ध होती है - २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १३ और १२ । शेष संक्रमस्थान यहांपर संभव नहीं हैं। ६३०७. स्त्रीवेदमें ग्यारह संक्रमस्थान होते हैं इस तीसरे सूत्र वचनके आश्रयसे संक्रमस्थानोंका पूर्वोक्त प्रकारसे ही कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदसे सम्बन्ध रखनेवाले नौ संक्रमस्थानोंके साथ स्त्रीवेदमें उन्नीस और ग्यारह प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान अधिक उपलब्ध होते हैं ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक और क्षपक जीवोंके नपुंसकवेदका उपशम और क्षय हो जानेपर विवक्षित वेदके उदयके साथ क्रमसे उक्त दोनों स्थान उपलब्ध होते हैं । पुरुषवेदके उदयमें तेरह संक्रमस्थानोंका कथन करनेवाले सूत्रके चौथे चरणकी प्ररूपणामें भी यही क्रम जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि दो नये संक्रमस्थानोंका सद्भाव यहांपर कहना चाहिये, क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशामक या क्षपक जीव प्रकृत वेदका उदय रहते हुए स्त्रीवेदकी उपशामना या क्षपणा करता है उसके यहां पर क्रमसे अठारह और दस प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं ॥१॥ विशेषार्थ-इस उन्नीसवीं गाथा द्वारा वेद मार्गणाकी अपेक्षा विचार करते हुए अपगतवेद, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें कहां कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका स्पष्ट निर्देश किया है। विशेष खुलासा टीकामें आ चुका है, इसलिये इस विषयमें और अधिक नहीं लिखा जाता है । ६३०८. इस प्रकार वेदमार्गणामें संक्रमस्थानोंका विचार करके अब कषाय मार्गणामें उनका विचार करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं-'कोहादी उवजोगे०' यहां सूत्र में आये हुए 'कोहादी उबजोगे' वचन द्वारा कषायमार्गणामें संक्रमस्थानोंका कथन करेंगे यह प्रतिज्ञा की गई है। इस १. ता प्रतौ तदिय इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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