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________________ ૧૫૨ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ _____$३०२. एवं गइमग्गणमंतोभाविदंकाइंदिय-जोग-सण्णियाणुवाद परूविय संपहि सम्मत्त-संजममग्गणगयविसेसपदुप्पायट्टमुत्तरसुत्तं भणइ—'चदुर दुगं तेवीसा०' एत्थ जहासंखमहिसंबंधो कायरो । मिच्छत्ते चत्तारि संकमट्ठाणाणि, मिस्सगे दोण्णि, सम्मत्ते तेवीसं संकमट्ठाणाणि होति । तत्थ मिच्छाइट्ठिम्मि सत्तावीस-छच्चीस-पणुवीसतेवीससण्णिदाणि चत्तारि संकमट्ठाणाणि होति–२७, २६, २५, २३ । सम्मामिच्छाइट्टिम्मि पणुवीस-इगिवीससण्णिदाणि दोण्णि संकमट्ठाणाणि भवंति–२५, २१ । सम्मतोवलक्खियगुणट्ठाणे सव्वसंकमट्ठाणसंभवो सुगमो। कथमेत्थ पणुवीससंकमट्ठाणसंभवो त्ति णासंकणिज्जं, अट्ठावीससंतकम्मियोवसमसम्माइट्ठिपच्छायदसासणसम्माइट्टिम्मि तदुवलंभादो। कधमेदस्स सम्माइद्विववएसो त्ति ण पच्चवट्ठाणं कायव्वं, दत्तुत्तरत्तादो। गाहापच्छद्धे वि जहासंखं णायावलंबणेण संबंधो जोजेयव्यो। तत्थ विरदे वावीस संकमट्ठाणाणि होति, संजमोवलक्खियगुणट्ठाणेसु पणुवीससंकमट्ठाणं मोत्तूण सेसाणं यद्यपि गाथामें केवल संक्रमस्थानोंका ही निर्देश किया है प्रतिग्रहस्थानों और तदुभयस्थानोंका निर्देश नहीं किया है तथापि संक्रमस्थानोंका ज्ञान हो जाने पर प्रतिग्रहस्थानों और तदुभयस्थानोंका ज्ञान सहज हो जाता है इसलिये उनका अलगसे निर्देश नहीं किया है इतना जानना चाहिये। ३०२. इस प्रकार गति मार्गणा और उनके भीतर आई हुई काय, इन्द्रिय, योग और संज्ञी मार्गणाओंका कथन करके अब सम्यक्त्व और संयमगत विशेषताका कथन करनेके लिये श्रागेका सूत्र कहते हैं - 'चदुर दुगं तेवीसा०' इनमें क्रमसे सम्बन्ध करना चाहिये। आशय यह है कि मिथ्यात्वमें चार, मिश्र में दो और सम्यक्त्वमें तेईस संक्रमस्थान होते हैं। उनमेंसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस और तेईस प्रकृतिक ये चार संक्रमस्थान होते हैं २७, २६, २५,२३ । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं २५, २१ । तथा सम्यक्त्व सहित गुणस्थानोंमें सब संक्रमस्थान सम्भव हैं सो यह कथन सुगम है। शंका-सम्यक्त्व सहित गुणस्थानोंमें पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव पीछे से सासादनसम्यक्त्वमें वापिस आता है उसके पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है। शंका-इसे सम्यग्दृष्टि संज्ञा कैसे दी गई है ? समाधान-ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसका उत्तर दिया जा चुका है। आशय यह है कि एक तो उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही सासादन सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है और दूसरे इसके सासादन गुणस्थानके प्राप्त हो जाने पर भी दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका अनुदय बना रहनेके कारण मिथ्यात्व भाव प्रकट नहीं होता है इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टिको सम्यग्दृष्टि संज्ञा दी है। गाथाके उत्तरार्धमें भी यथासंख्य न्यायका अवलम्बन लेकर पदों का सम्बन्ध कर लेना चाहिये। यथा--विरतके बाईस संक्रमस्थान होते हैं क्योंकि संयमसे युक्त गुणस्थानोंमें पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके सिवा शेष सभी संक्रमस्थान पाये जाते हैं। . १. अा प्रतौ -मग्गणामंतोभाविद- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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