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________________ गा०४३-४५ ] मग्गणट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा १५३ सव्वेसिमेव संभवोवलंभादो । एदं संजमसामण्णावेक्खाए भणिदं । संजमविसेसविवक्खाए पुण सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमेसु वावीसण्हं पि संकमट्ठाणाणं संभवो गाण्णत्थ । तं कथं ? परिहारसुद्धिसंजमम्मि २७, २३, २२, २१ एदाणि चत्तारि संकमट्ठाणाणि मोत्तण सेसाणि सव्वाणि वि सुण्णट्ठाणाणि। सुहुम०-जहाक्खाद०संजमेसु वि संकमट्ठाणमेक्कं चेव संभवइ, चउवीससंतकम्मियमस्सियूण तत्थ दोण्हं पयडीणं संकमोवलंभादो । मिस्सग्गहणमेत्थ संजमासंजमस्स संगहटुं। तदो तम्मि पंच संकमट्ठाणाणि होति त्ति संबंधो । ताणि च एदाणि-२७, २६, २३, २२, २१' । असंजमोवलक्खिए गुणट्ठाणे इमाणि चेव पणुवीसब्भहियाणि संभवंति त्ति सुत्ते छक्कणिद्देसो कओ । ताणि चेदाणि-२७, २६, २५, २३, २२, २१ ॥१७॥ ३०३. एवं समत्त-संजममग्गणासु संकमट्ठाणाणमियत्तासंभवं णिद्धारिय लेस्सामग्गणाए तदियत्तासंभवावहारणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ–'तेवीस सुक्कलेस्से०' सुक्कलेस्सापरिणदे जीवे तेवीसं पि संकमट्ठाणाणि भवंति, तत्थ तस्संभवे विरोहाभावादो । तेउ-पम्मलेस्सासु पुण सत्तावीसादीणमिगिवीसपज्जंताणं संभवदंसणादो छक्कणियमो-२७, २६, २५, २३, २२, २१ । 'पणगं पुण काऊए' काउलेस्साए पंचेव संकमट्ठाणाणि होति, अणंतर यह कथन सामान्य संयमकी अपेक्षासे किया है। संयमविशेषोंकी अपेक्षासे तो सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयममें बाईस ही संक्रमस्थान सम्भव हैं किन्तु अन्य संयमोंमें ये बाईस संक्रमस्थान सम्भव नहीं है। जैसे परिहारसुद्धिसंयममें २७,२३,२२ और २१ इन चार संक्रमस्थानोंके सिवा शेष सब संक्रमस्थान नहीं होते। सूक्ष्मसम्परायसंयम और यथाख्यातसंयममें भी केवल एक संक्रमस्थान सम्भव है, क्योंकि चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मवाले जीवकी अपेक्षा वहाँ दो प्रकृतियोंका संक्रम उपलब्ध होता है। सूत्र में मिश्र पद संयमासंयमके संग्रह करनेके लिये ग्रहण किया है, इसलिये संयमासंयम गुणस्थानमें पाँच संक्रमस्थान होते हैं ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये । वे पाँच संक्रमस्थान २७,२६,२३,२२ और २१ ये हैं। तथा असंयम सहित गुणस्थानोंमें पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके साथ ये पूर्वोक्त पाँच ही संक्रमस्थान होते हैं, इसलिए सूत्रमें 'छह' पदका निर्देश किया है । वे छह संक्रमस्थान २७,२६,२५,२३,२२ और २१ ये हैं ॥१७॥ विशेषार्थ—इस गाथा द्वारा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, विरत, विरताविरत और अविरत जीवों में से प्रत्येकके कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका निर्देश किया है। . ६३०३. इस प्रकार सम्यक्त्व मार्गणा और संयम मार्गणामें संक्रमस्थानोंके परिमाणका निर्धारण करके अब लेश्यामार्गणामें संक्रमस्थानोंके परिमाणका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-'तेवीस सुक्कलेस्से.' शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तेईस ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि वहाँ पर इनके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें तो सत्ताईससे लेकर इक्कीस तक ही संक्रमस्थान देखे जानेसे छहका नियम किया है-२७,२६,२५,२३,२२ और २१ । 'पणगं पुण काऊए' कापोत लेश्यामें पाँच ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि पीछे जो छह संक्रमस्थान १. श्रा०प्रतौ २७, २६, २५, २३, २२, २१ इति पाठः। २. ता. प्रतौ १२ इति पाठः । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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