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________________ १५१ vvvvvvvvvvvwww गा• ४२-४३ ] मग्गणट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा कायव्वो । तदो तदुभयहाणाणि च परवेयव्वाणि । एवं कए गइमग्गणा समप्पइ । एत्थेव काइंदिय-जोग-सण्णिमग्गणाणं च संगहो कायव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासियत्तादो ॥१६॥ भी कथन कर लेना चाहिये । इस प्रकार कथन करने पर गतिमार्गणा समाप्त होती है। यहीं पर काय,इन्द्रिय,योग और संज्ञी मार्गणाका भी संग्रह करना चाहिये क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है ॥१६।। विशेषार्थ—इस गाथासूत्र में चारों गतियोंमेंसे किसमें कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। उसमें भी तियच गतिमें एकेन्द्रियोंके कितने, विकलेन्द्रियोंके कितने और असंज्ञियोंके कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका भी उल्लेख किया है। इतने निर्देशसे काय, इन्द्रिय, योग और संज्ञी मार्गणामें कहाँ कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका भी ज्ञान हो जाता है इसलिये देशामर्षक रूपसे इस सूत्रद्वारा उन मार्गणाओंका भी यहाँ संकलन करनेके लिये निर्देश किया है। खुलासा इस प्रकार है-काय मार्गणाके स्थावर और त्रस ये दो भेद हैं। इनमेंसे स्थावर एकेन्द्रिय ही होते हैं और शेष सब त्रस होते हैं, इनमें मनुष्य भी सम्मिलित हैं। इसलिये स्थावरोंके २८,२७ और २४ ये तीन संक्रमस्थान तथा त्रसोंके सब संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियोंके उक्त तीन और मनुष्योंके सब संक्रमस्थान बतलाये हैं। इन्द्रिय मार्गणाके एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पाँच भेद हैं। सो गाथा सत्र में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके २७, २६ और २५ ये तीन संक्रमस्थान होते हैं इसका स्पष्ट निर्देश किया ही है। अब रहे पंचेन्द्रिय सो इनमें तिथंच पंचेन्द्रिय और शेष तीन गतियोंके सब जीव सम्मिलित हैं अतः इनके भी सब संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। योगके स्थूल रूपसे तीन भेद हैं और मनुष्योंके ये तीनों योग सम्भव हैं अतः प्रत्येक योगमें सब संक्रमस्थान सम्भव हैं यह सिद्ध होता है। यह तो हुआ सामान्य विचार किन्तु योगोंके उत्तर भेदोंकी अपेक्षासे विचार करने पर मनोयोगके चारों भेदोंमें और वचन योगके चारों भेदोंमें सब संक्रमस्थान सम्भव हैं, क्योंकि इनका सत्त्व मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक पाया जाना सम्भव है, इसलिये इनमें सब संक्रमस्थान बन जाते हैं। अब रहे काययोगके सात भेद सो औदारिककाययोग पर्याप्त अवस्थामें मनुष्यों के भी सम्भव है और मनुष्योंके सब संक्रमस्थान बतलाये हैं इसलिये इसमें सब संक्रमस्थान बन जाते हैं। औदारिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानकी अपर्याप्त अवस्थामें मनुष्य और तिर्यंचोंके ही होता है। यहाँ सयोगकेवली गुणस्थान अविवक्षित है। किन्तु ऐसी दशामें २७,२६,२५,२३ और २१ ये पाँच संक्रमस्थान सम्भव हैं शेष नहीं, इसलिये औदारिक मिश्रकाययोगमें ये पाँच संक्रमस्थान प्राप्त होते है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमें भी जानना चाहिये, क्योंकि इन योगोंका सम्बन्ध भी अपर्याप्त दशासे है तथा देवोंके ये ही संक्रमस्थान होते हैं अन्य नहीं। वैक्रियिक काययोग देव और नारकियोंके होता है, इसलिये देव और नारकियोंके जो भी संक्रमस्थान होते हैं वे वैक्रिय काययोगमें भी प्राप्त होते हैं। अब रहे आहारक और आहारकमिश्रकाययोग सो ये दोनों योग प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें तो होते ही हैं साथ ही या तो वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतके होत हैं या क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतके होते हैं। इसलिये इनमें २७,२३, और २१ ये तीन ही संक्रमस्थान सम्भव हैं ऐसा जानना चाहिये । तथा संज्ञी मार्गणाके संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद हैं। सो इनमेंसे असंज्ञियोंके २७,२६ और २५ ये संक्रमस्थान होते हैं यह तो गाथामें ही बतलाया है। तथा मनुष्य संज्ञी ही होते हैं और मनुष्योंके सब संक्रमस्थान बतलाये हैं इसलिये संज्ञियोंके भी सब संक्रमस्थान सम्भव हैं यह बात सहज फलित हो जाती है। इस प्रकार इस गाथासूत्रसे काय आदि पूर्वोक्त चार गाथाओंमें कहाँ कितने संक्रमस्थान होते हैं यह कथन देशामर्षकभावसे सूचित हो जाता है यह बात सिद्ध हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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