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________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बंधगो ६ पंचिंदियग्गहणेण चउगइसाहारणेण तिरिक्खाणमेव पडिवत्ती ? ण, पारिसेसियण्णाएण तत्थेव तप्पउत्तीए विरोहाभावादो। किमेवं चेव मणुसगईए वि होदि त्ति आसंकाए उत्तरमाह-'सव्वे मणुसगईए' मणुसगईए सव्वाणि वि संकमट्ठाणाणि संभवंति त्ति उत्तं होइ, सव्वेसिमेव तत्थ संभवे विरोहाभावादो। एत्थ ओघपरूवणा अणूणाहिया वत्तव्या । पंचिंदियतिरिक्खेसु कथं होइ ति आसंकाए इदमुत्तरं—'सेसेसु तिगं' । सेसग्गहणेण एइंदिय-विगलिंदियाणं गहणं कायव्वं, तेसु सत्तावीस-छव्वीस-पणुवीससण्णिदसंकमट्ठाणतियमेव संभवइ । एवमसण्णिपंचिंदिएसु वि वत्तव्वं, विसेसाभावादो त्ति पदुष्पायणट्ठमिदं वयणं-'असण्णीसु'। असण्णिपंचिंदिएसु वि संकमट्ठाणत्तियमेवाणंतरपरूविदं संभवइ त्ति उत्तं होइ । अहवा 'सेसेसु तियं असण्णीसु' त्ति उत्ते सेसग्गहणेणासण्णिविसेसिदेण एइंदिय-विगलिंदियाणमसण्णिपंचिंदियाणं च संगहो कायव्वो, तेसिं सव्वेसिमसण्णित्तं पडि भेदाभावादो। तदो तेसु संकमट्ठाणतियमेवाणंतरपरूविदं होइ त्ति घेत्तव्यं । एत्थ णिरयादिगईसु संभवंताणं पडिग्गहट्ठाणाणं च जहागममणुगमो शंका-इम गाथामें जो पंचिंदिय' पदका ग्रहण किया है सो यह चारों गतियों में साधारण है। अर्थात् पंचेन्द्रिय चारों गतियोंके जीव होते हैं फिर उससे केवल तिर्य चोंका ही ज्ञान कैसे किया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि पारिशेष न्यायसे तिर्यचोंमें ही इस पदकी प्रवृत्ति माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। क्या इसी प्रकार मनुष्य गतिमें भी संक्रमस्थान होते हैं ? इस प्रकारकी शंकाके होनेपर उसके उत्तररूपमें 'सव्वे मणुसगईए' यह सूत्रवचन कहा है। मनुष्यगतिमें सभी संक्रमस्थान सम्भव है यह इसका तात्पर्य है, क्योंकि वहाँ पर सभी संक्रमस्थानोंके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यहाँ मनुष्यगतिमें ओघप्ररूपणा न्यूनाधिकतासे रहित पूरी कहनी चाहिए। । अब पंचेन्द्रिय तियचोंसे अतिरिक्त तिर्यञ्चोंमें कौनसे संक्रमस्थान होते हैं ऐसी आशंका होनेपर उसके उत्तररूपमें 'सेसेसु तिग' यह सूत्रवचन कहा है। यहाँ शेष पदसे एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उनमें सत्ताईस, छब्बीस और पच्चीस प्रकृतिक तीन संक्रमस्थान ही सम्भव हैं । तथा इसी प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रियों में भी कथन करना चाहिये, क्योंकि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंके कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिये सूत्र में 'असण्णोसु' वचन दिया है। असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें भी पूर्वमें कहे गये तीन संक्रमस्थान ही होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अथवा 'सेसेसु तियं असण्णीसु' इस वचनमें जो शेष' पदका ग्रहण किया है सो इससे असंज्ञी विशेषणसे युक्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियोंका संग्रह करना चाहिये, क्योंकि असंज्ञित्वकी अपेक्षा इन सबमें कोई भेद नहीं है। इसलिये उनमें वे ही तीन संक्रमस्थान होते हैं जिनका पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिये । यहाँ पर नरकादि गतियोंमें प्रतिग्रहस्थानोंका यद्यपि गाथासूत्रमें उल्लेख नहीं किया है तथापि आगमानुसार उनका विचार कर लेना चाहिये । तथा इसी प्रकार तदुभयस्थानोंका १. श्रा०प्रतौ वत्तव्या । अहवा पंचिंदिय-- इति पाठः । २. ताप्रती वयणं असएिणपंचिंदिएसु इति पाटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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