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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ट्ठाणाणि वत्तव्वाणि, खवगोवसमसेढिपाओग्गसंकमट्ठाणाणं सव्वेसिमेन्थेवे संभवदंसणादो। ओदरमाणमस्सियूण वि उवसमसेढीए संकमट्ठाणाणि लब्भंति । तं जहा-चउवीससंतकम्मिओ सुहुमोवसंतगुणट्ठाणेसु दुविहसंकामगो अद्धाक्खएण परिवडमाणगो अणियट्टिगुणट्ठाणपवेसकाले चेय दुविहं लोहं लोहसंजलणम्मि संकामेइ । तदो तत्थ चदुण्हं संकमो तिसु पयडीसु पडिग्गहभावमावण्णाणु संभवइ । पुणो जहाकम तिविहमायतिविहमाग-तिविहकोह-सत्तणोकसाय-इत्थि-णqसयवेदाणमोकडणवावारेण परिणदस्स तस्सेव अट्ठण्हमेकारसण्हं चोदसण्हमेकावीसाए वावीसाए तेवीसाए च संकमट्ठाणाणि उप्पजंति-४, ८, ११, १४, २१, २२, २३ । एवमिगिवीससंतकम्मियस्स वि परिवदमाणयस्स संकमट्ठाणाणमुप्पत्ती वत्तव्वा । ताणि च एदाणि-२, ६, ९, १२, १९, २०, २१, सव्वेसिमेदाणं पडिग्गहट्ठाणजोयणा च जाणिय कायन्वा ॥१३॥ और क्षपकके क्रमसे तेईस प्रकृतिक आदि और इक्कीस प्रकृतिक आदि संक्रमस्थान कहने चाहिये, क्योंकि क्षपक और उपशमश्रेणिके योग्य सभी संक्रमस्थान यहाँपर लिये गये हैं। तथा उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवकी अपेक्षा भी उपशमश्रेणिमें संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। यथा सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तकषाय गुणस्थनोंमें दो प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाला चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला जो जीव इन गुणस्थानोंका काल समाप्त होनेसे गिरकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रवेश करता है उसके उस समय ही दो प्रकारके लोभका लोभ संज्वलनमें संक्रम करता है, इसलिये वहाँ प्रतिग्रहभावको प्राप्त हुई तीन प्रकृतियोंमें चार प्रकृतियोंका संक्रम होता है। फिर क्रमसे जब वही जीव तीन प्रकारकी माया, तीन प्रकारका मान, तीन प्रकारका क्रोध, सात नोकषाय, स्त्रीवेद और नपुसकवेद इनका अपकर्षण करता है तब उसीके आठ, ग्यारह, चौदह, इक्कीस, बाईस और तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं। पूर्वोक्त सब स्थान ये हैं-४, ८, ११, १४, २१, २२ और २३ । इसी प्रकार जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणिसे च्युत होता है उसके भी संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति कहनी चाहिये । वे ये हैं- २, ६, ९, १२, १९, २० २१ । इन सब स्थानों के प्रतिग्रहस्थानोंकी योजना जानकर कर लेना चाहिये ।।१३॥ विशेषार्थ–२७ प्रकृतिक संक्रमस्थानसे लेकर १ प्रकृतिक संक्रमस्थान तक जितने संक्रम स्थान हैं उनमेंसे पहले तो इस बातका विचार करना चाहिये कि इनमें से कितने संक्रमस्थान तो आनुपूर्वी क्रमसे उत्पन्न होते हैं और कितने आनुपूर्वीके बिना उत्पन्न होते हैं। अन्तरकरणके पश्चात् कर्मोंकी होनेवाली उपशमना या क्षपणाके अनुसार उत्तरोत्तर हीन क्रमको लिये हुए जो संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं वे आनुपूर्वी क्रमसे उत्पन्न हुए संक्रमस्थान कहलाते हैं और शेष अनानुपूर्वी संक्रमस्थान कहलाते हैं। इसी प्रकार जो संक्रमस्थानों और प्रतिग्रहस्थानोंके अन्वेषण करनेके अन्य उपायोंका निर्देश किया है सो उनका भी स्वरूप जान लेना चाहिये। उनके स्वरूपके कथन करनेमें कोई विशेषता न होनेसे यहाँपर हमने उसका निर्देश नहीं किया है। अब यहाँ श्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वी क्रमसे प्राप्त होनेवाले संक्रमस्थानोंका सरलतासे ज्ञान करानेके लिये कोष्ठक दिया जाता है १. पा प्रतौ -मेवत्थ इति पाठः । २. ता०प्रतौ तदो ति चदुण्हं, श्रा०प्रतौ तदो त्व चदुण्हं इति पाठः। ३. ता०-प्रा०प्रत्योः ३ इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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