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________________ गा० ३६ ] आणुपुत्री-अणाणुपुव्वीसंकमट्ठाणणिद्देसो १४५ वि वीसेकोणवीसपहुडयो तेणेव विहाणेणाणुगंतव्वा । तेसिं पमाणमेदं–२०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३, २'। खवगस्स वि बारससंकमट्ठाणप्पहुडि एदाणि संकमट्ठाणाणि दट्ठव्वाणि-१२, ११, १०, ४, ३, २, १ । अणाणुपुव्वीविसयाणं पि संकमट्ठाणाणमणुगमो कायव्यो । तेसिमेसा ठवणा-२७, २६, २५, २३, २२, २१, १३ । एत्थेवोदरमाणमस्सियूण संभवंताणं संकमट्ठाणाणमणुमग्गणा कायव्वा, तेसिमणाणुपुव्विविसयाणमिह परूवणाए विरोहाभावादो। २९७. संपहि 'झीणमझीणं च दंसणे मोहे' इच्चेदमत्थपदमवलंबिय संकमट्ठाणाणं मग्गणे कीरमाणे तत्थ ताव दंसणमोहक्खयमस्सियूण इगिवीससंतकम्मियाणुपुवीसंकमट्ठाणाणि चेव इगिवीससंकमट्ठाणब्भहियाणि लब्भंति । एत्थेव खवगसेढिपाओग्गसंकमाणाणि वि वत्तव्वाणि, सव्वेसिमेव तेसिं दंसणमोहक्खवयपच्छाकालभावीणं तण्णिबंधणत्तसिद्धीदो। तदपरिक्खए च सत्तावीसादिसंकमट्ठाणाणि इगिवीसपजंताणि संभवंति त्ति वत्तव्वं । चउवीससंतकम्मियाणुपुव्वीसंकमट्ठाणाणि वि एत्थेव पवेसियव्वाणि । $ २९८. संपहि उवसामगे च खवगे च' एदमत्थपदमवलंबिय संकमट्ठाणमग्गणाए चउवीस-इगिवीससंतकम्मियोवसामग-खवगेसु जहाकमं तेवीस-इगिवीसप्पहुडिसंकमइक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके भी उसी विधिसे २० और १९ आदि प्रकृतिक संक्रमस्थान जानना चाहिये। उनका प्रमाण यह है-२०, १६, १८, १२, ११, ६, ८, ६, ५, ३ और २ । क्षपक जीवके भी बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानसे लेकर ये संक्रमस्थान जानना चाहिये-१२, ११, १०,४, ३, २ और १ । इसी प्रकार अनानुपूर्वी संक्रमस्थानोंका भी विचार करना चाहिये । उनकी स्थापना इस प्रकार है-२७, २६, २५, २३, २२ २१ और १३ । तथा यहीं पर उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवकी अपेक्षा भी जो संक्रमस्थान सम्भव हैं उनका विचार करना चाहिये, क्योंकि वे अनानुपूर्वीको विषय करते हैं इसलिये उनका यहाँ कथन करने में कोई विरोध नहीं आता है। ६२६७. अब 'झीणमझीणं च दंसणे मोहे' इस अर्थपदकी अपेक्षा संक्रमस्थानोंका विचार करनेपर इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके जो पहले आनुपूर्वीसंक्रमस्थान कह आये हैं उनमें इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके मिला देने पर वे सबके सब दर्शनमोहके क्षयकी अपेक्षा संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। तथा क्ष पकश्रेणिके योग्य संक्रमस्थान भी यहीं पर कहने चाहिये, क्योंकि वे सब दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके बाद होते हैं, इसलिये वे भी तन्निमित्तक सिद्ध होते हैं। और दर्शनमोहके क्षयके अभावमें सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानसे लेकर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान तक छह होते हैं ऐसा कहना चाहिये। तथा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके जो आनुपूर्वी संक्रमस्थान होते हैं उनका समावेश भी यहीं पर कर लेना चाहिये । अर्थात् २४ प्रकृतियों की सत्तावाले जीवके जितने संक्रमस्थान होते हैं वे भी दर्शनमोहके क्षयके अभावमें होते हैं अतः उनकी गणना भी दर्शनमोहके क्षयके अभावमें होनेवाले संक्रमस्थानोंमें हो जाती है। ६२६८. अब 'उवसामगे च खवगे च' इस अर्थपदकी अपेक्षा संक्रमस्थानोंका विचार करने पर चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामकके और इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक १. ता.- श्रा०प्रत्योः २, १ इति पाठः । २. ता- प्रा०प्रत्योः -मद्धपदमवलंबिय इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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