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________________ १२६ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगी ६ हारणफलो पुव्वं व पडियतलोवादिविहाणेण णिदिट्ठो दट्ठव्वो । तत्थ छन्त्री संतकम्मियमिच्छाइ डिस्स वावीसविहं बंधमाणयस्स इगिवीसपडिग्गहालवणो होऊण पणुवीसकसायसंकमो होइ । अहवा अणंताणुबंधी अविसंजोएण दिउवसमसम्माइट्ठिस्स आसाणं पडिवज्ञ्जिय इगिवीसबंधमाणस्स पणुवीससंकमो इगिवीसपडिग्गहपडिबद्धो हो, तत्थ सहावदो दंसणतियस्स संकम- पडिग्गहसत्तीणमभावादो । पुणो अट्ठावीस संतकम्मियमिच्छाइट्ठि सम्माइट्ठीणमण्णदरस्स सम्मामिच्छत्तं पडिवजिय सत्तारसपयडीओ बंध माणस पणुवीस संकमो सत्तारसपडिग्गहपडिग्गहिओ होइ, एत्थ वि दंसणतियस्स संकमाभावादो | एवं परिग्गहट्ठाण विसेस विसयत्तेणावहारियस्स पणुवीससंकमट्ठाण सं गगयविसेस णिद्धारणमिदमाह - 'णियमा चदुसु गदीसु य' णियमा णिच्छएण चदुसु विगई पणुवीससंकमाणमवट्ठिदं दट्ठव्वं, अण्णदरगइविसयणियमाभावाद । एत्थेव गुणवाणगय सामित्तविसेस णिद्धारणमाह - 'णियमा 'दिट्ठीगए तिविहे' गुणद्वाणमादीदो पहुडि तिविहे गुणड्डाणे मिच्छाइडि - सासणसम्माइट्टि सम्मामिच्छादिट्टि ति दिहिविसेसणविसितादो डिगए पयदसंकमडाणसंभवो णाण्णत्थ, तत्थेव तदुष्पत्तिणियम - दंसणादो । एदेण 'दिट्ठीगय' विसेसणेण संजदासंजदादीणमुवरिमगुणद्वाणाणं उदासो प्रतिग्रहस्थान हैं यह बतलाने के लिए दिया है। तथा इस नियम शब्द के 'तू' का लोप और विधि पूर्ववत् जान लेना चाहिये । जो छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव. बाईस प्रकृतियों का बन्ध करता है उसके इक्कीस प्रकृतिक प्रतिप्रस्थानके रहते हुए पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । अथवा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना किये बिना जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासदन गुणस्थानको प्राप्त होकर इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध करता है उसके इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि वहाँपर स्वभाव से ही दर्शनमोहक तीन प्रकृतियोंमें संक्रम और प्रतिग्रहरूप शक्तिका अभाव है । पुनः प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करता है उसके सत्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि यहां पर भी दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता है । इस प्रकार प्रतिग्रहविशेष के विषयरूपसे निश्चय किये गये पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका गतिसम्बन्धी विशेषताका निश्चय करनेके लिये गाथा में 'शियमा चदुसु गदीसु य' यह कहा है आशय यह है कि यह पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान नियमसे चारों गतियोंमें होता है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि यह अमुक गतिमें ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है । तथा यहीं पर गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व विशेषका निर्धारण करनेके लिये 'णियमा दिट्ठीगए तिविहे' यह कहा है । यहां गाथा में दृष्टि विशेषरण होनेसे आदिके तीन मिध्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानोंका ग्रहण होता है । इन तीन गुणस्थानोंमें ही प्रकृत संक्रमस्थान सम्भव है। अन्यत्र नहीं, क्योंकि इन्हीं तीन गुणस्थानों में इस संक्रमस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है। यहां जो यह 'दृष्टिगत' विशेषण दिया है सो इससे संयतासंयत आदि आगे गुणस्थानोंका निषेध कर 1 १. ता०प्रतौ पडिग्गहङ्काणविसेसविययत्तेणावहारियस्स पशुवीस संकमा एविसेस विसयत्ते गावहारियस्स पीकमास इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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