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________________ गा० ३१] . संकमट्टाणाणं पडिग्गहट्ठाणणिहेसो १२७ कओ। 'तिविह' विसेसणेण च असंजदगुणट्ठाणस्स बहिब्भावो कओ। एवं चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता। ___ २८७. 'वावीस पण्णरसगे.' एसा पंचमी गाहा तेवीससंकमट्ठाणस्स पडिग्गहट्ठाणपरूवणट्ठमागया। एदिस्से अत्थविवरणं कस्सामो-तेवीससंकमो पंचसु . ट्ठाणेसु होइ ति एत्थ संबंधो। तेसिं पंचसंखाविसेसियाणं पडिग्गहट्ठाणाणं सरूवगिद्धारणहूँ 'वावीसादि' वयणं । कथमेत्थ वावीसाए तेवीससंकमोवलंभो? ण, अणंताणुबंधीविसंजोयणापुरस्सरसंजुत्तमिच्छादिट्ठिपढमसमयप्पहुडि आवलियमेत्तकालमणंताणुबंधीणं संकमाभावेण तेवीससंकामयस्स तदुवलंभविरोहाभावादो। पण्णरसगे पयदसंकमट्ठाणसंभवो संजदासंजदम्मि दट्ठश्वो, विसंजोइदाणताणुबंधिचउक्कसंजदासंजदस्स पण्णारसपडिग्गहट्ठाणाधारत्तेण तेवीससंकमट्ठाण पउत्तिदंसणादो । एवं सत्तगे वि पयदसंकमट्ठाणसंभवो जोजेयव्वो। णवरि चउवीससंतकम्मियाणियट्टिम्मि अंतरकरणादो हेट्ठा तदुप्पत्ती वत्तव्वा, अणाणुपुव्वीसंकामयस्स तस्स तदविरोहादो। एकारसूणवीसासु पयदजोयणा एवं दिया है और 'त्रिविध' इस विशेषण द्वारा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका निषेध कर दिया है। विशेषार्थ—प्राशय यह है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टिके १७ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें २५ प्रकृतियोंका संक्रम होता है। पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके ये दो ही प्रतिग्रहस्थान हैं अन्य नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार चौथी गाथाके अर्थका कथन समाप्त हुआ। $ २८७. 'वावीस पण्णरसगे.' यह पांचवी गाथा है जो तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके प्रतिग्रहस्थानोंका कथन करनेके लिये आई है। अब इस गाथाका अर्थ लिखते हैं-तेईस प्रकृतिक संक्रम पांच स्थानोंमें होता है ऐसा यहां सम्बन्ध करना चाहिये । उन पांच संख्यासे विशेषताको प्राप्त हुए प्रतिग्रहस्थानोंके स्वरूपका निश्चय करनेके लिये गाथामें 'वावीस' अदि वचन दिया है। शंका-बाईस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें तेईस प्रकृतिक संक्रम कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पूर्वक उससे संयुक्त हुए मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयसे लेकर एक आवलि कालतक अनन्तानुबन्धियोंका संक्रम नहीं होनेसे तेईस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले जीवके बाईस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान पाये जानेमें कोई विरोध नहीं आता है। पन्द्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें प्रकृत संक्रमस्थानका सम्भव संयतासंयतके जानना चाहिये, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसे संयतासंयतके पन्द्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके आधाररूपसे तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसी प्रकार सात प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें भी प्रकृत संक्रमस्थानको घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण क्रिया करनेके पहले इसी स्थानकी उत्पत्ति कहनी चाहिये, क्योंकि जिसने आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ नहीं किया है उस जीवके सात १. ता. प्रतौ पुब्बीसंकमस्स इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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