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________________ १२५ annormanAAMA गा० ३०] संकमट्ठाणाणं पडिग्गहवाणिदेसो ६२८५. संपहि सत्तावीसाए उच्चदे-अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठिम्मि सत्तावीससंकमो वावीसपयडिपडिग्गहविसईकओ समुप्पजइ । पुणो उवसमसम्मत्तग्गहणविदियसमयप्पहुडि जाव अणंताणुबंधीणं विसंजोयणा गत्थि ताव संजदासंजद-संजदअसंजदसम्माइद्विगुणट्ठाणेसु सत्तावीससंकमस्स जहाकमं पण्णारसेक्कारस-एगूणवीसपडिग्गहा होति । एवं तदियगाहाए अत्थो समत्तो । $२८६. सत्तारसेकवीसासु०-पंचवीसाए संकमो कम्मि पडिग्गहट्ठाणम्मि होइ त्ति आसंकिय 'सत्तारसेकवीसासु' तिं उत्तं । एदेसु दोसु पडिग्गहट्ठाणेसु पणुवीसाए संकमो णिबद्धो त्ति उत्तं होइ। एत्थ वि णियमसद्दो पडिग्गहट्ठाणेसु संकमट्ठाणाव $२५. अब सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके प्रतिग्रहस्थान कहते हैं-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि के बाईस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानका विषयभूत सत्ताईसप्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । पुनः उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके दूसरे समयसे लेकर जब तक अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना नहीं होती है तब तक संयतासंयत, संयत और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके क्रमसे पन्द्रहप्रकृतिक, ग्यारहप्रकृतिक और उन्नीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ—यहां पर प्रकृतिसंक्रमस्थानके सिलसिलेमें आई हुई ३२ गाथाओंमें से तीसरी गाथाका ब्याख्यान किया गया है। इस गाथासे लेकर १२वीं गाथा तक १० गाथाओंमें किस संक्रमस्थानके कितने प्रतिग्रहस्थान हैं यह बतलाया गया है। उनमेंसे तीसरी गाथामें २७ प्रकृतिक और २६ प्रकृतिक संक्रमस्थानोंके २२, १६, १५, और ११ प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थान बतलाये गये हैं सो इनका विशेष खुलासा टीकामें किया ही है। इस तीसरी गाथाके पूर्वार्धमें "णियम' पद आया है । यह 'नियमात्' इस पंचमी विभक्तिके एक वचनका रूप है । प्राकृतके नियमानुसार आदि, मध्य और अन्तमें आये हुए वर्णों और स्वरोंका लोप हो जाता है, अतः इस पदमेंसे 'त्' का लोप करके फिर छन्दोभंग दोषको टालनेके लिये हस्व कर दिया गया है। इसलिये 'णियम' यह 'नियमात्' का रूप जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह 'नियम' पद संक्रमस्थानों का नियम करता है कि इन दो संक्रमस्थानोंके ये चार ही प्रतिग्रहस्थान होते हैं अन्य नहीं, किन्तु प्रतिग्रहस्थानोंका नियम नहीं करता है । ये चार प्रतिग्रहस्थान इन दो संक्रमस्थानोंके तो होते ही हैं किन्तु इनके सिवा अन्य संक्रमस्थान भी इन प्रतिग्रहस्थानोंमें सम्भव हो सकते हैं। यथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके बाद जो तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है उसके उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारहप्रकृतिक तीन प्रतिग्रहस्थान होते हैं। इस प्रकार गाथामें आये हुए नियम पदसे संक्रमस्थानोंका नियम किया गया है प्रतिग्रहस्थानोंका नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार तीसरी गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। ६२८६. अब 'सत्तारसेक्कवीसासु' इस चौथो गाथाका व्याख्यान करते हैं--पच्चीस प्रकृतिक संक्रम किस प्रति ग्रहस्थानमें होता है ऐसी आशंका करके सत्रह प्रकृतिक और इक्कीस प्रकृतिक इन दो प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है ऐसा कहा है । इन दो प्रतिग्रहस्थानोंमें पच्चीस प्रकृतिक संक्रम निबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ भी गाथामें 'नियम' शब्द आया है सो वह इस संक्रमस्थानके १. ता०प्रतौ -वीसासु पंचवीसाए त्ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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