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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ पंचमिएयवयणंतो छंदोभंगभरण पडियतलोचं काऊण रहस्सादेसेण णिदिट्ठो । संकमणाणमेत्थ नियमो पडिग्गहड्डाणाणमणियमो । तदो तेसु तेवीसाए वि संकमो ण विरुज्झदे । एवं सत्तावीस-छब्वी ससंकमाहारत्तेणावहारियाणं चउन्हं पडिहद्वाणाणं सरूवणिसङ्कं गाहापच्छद्धो 'वावीस पण्णरसगे० ।' पादेकमेदेसु चदुसु पडिग्गहट्ठाणेसु छव्वीस - सत्तावीसाणं संकमो होइ त्ति वृत्तं होइ । १२४ $ २८४, तत्थ ताव सत्तावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठिम्मि पणुवीसकसाय -सम्मामिच्छत्तसंकामयम्मि छब्बीससंकमस्स वावीसपडिग्गहो लब्भदे । पुणो छव्वीससंतकम्मियमिच्छाट्टिणा उवसमसम्मत्त - संजमा संजम गहणपढमसमए सम्मामिच्छत्तसंकमा - भावेण छव्वीस संकमस्स पण्णारस पडिग्गहो होइ । तेरसविहतब्बंध पयडीसु सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं पवेसादो । तेणेव पढमसम्मत्त - संजमजुगवग्गहणपढमसमयम्मि छन्वीससंकमस्स एक्कारस० पडिग्गहो होइ, तत्थ सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तेहि सह चदुकसायपंचणोकसायाणं पडिग्गहत्तदंसणादो । पुणो पढमसम्मत्तग्गहणपढमसमए वट्टमाणस्स असंजदसम्माइट्ठिस्स एगूणवीस पडिग्गहाणपडिग्गहिओ छन्बीससंकमो होइ, तदवत्थाए पडिग्गहाणंतरस्सासंभवादो । है, इसलिए छन्द भंग होनेके भय से अन्तमें प्राप्त हुए 'त' का लोप करके और उसके स्थान में ह्रस्व का आदेश करके निर्देश किया है। यहां पर संक्रमस्थानों का नियम किया गया है प्रतिग्रहस्थानोंका नियम नहीं किया गया है, इसलिये इन प्रतिग्रहस्थानों में तेईस प्रकृतिक स्थानका संक्रम भी विरोधको नहीं प्राप्त होता है । इस प्रकार सत्ताईस प्रकृतिक और छब्बीस प्रकृतिक संक्रमों के आधाररूपसे निश्चित किये गये चार प्रतिग्रहस्थानोंके स्वरूपका निर्देश करनेके लिये 'वावीस पण्णरसगे' यह गाथा उत्तरार्ध कहा है । इन चारों प्रतिग्रहस्थानोंमेंसे प्रत्येकमें छब्बीसप्रकृतिक और सत्ताईसप्रकृतिक स्थानोंका संक्रम होता है यह उक्त कथनका तत्पर्य है । $ २८४. उनमें से पच्चीस कषाय और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करनेवाले सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिध्यादृष्टिके छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका बाईसप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान प्राप्त होता है । फिर जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एकसाथ प्राप्त करता है उसके प्रथम समय में सम्यग्मिध्यात्वका संक्रम नहीं होनेसे छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका पन्द्रहप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान प्राप्त होता है, क्योंकि संयतासंयत के बंधनेवाली तेरह प्रकारकी प्रकृतियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रतिग्रहरूपसे प्रवेश देखा जाता है । तथा वही छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव जब प्रथम सम्यक्त्व और संयम इन दोनोंको एक साथ ग्रहण करता है तब उसके प्रथम समयमें छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका ग्यारह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि वहां पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ चार कषाय और पांच नोकषाय ये ग्यारह प्रतिग्रह प्रकृतियाँ देखी जाती हैं । पुनः प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण करने के प्रथम समय में विद्यमान हुए असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके उन्नीसप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि उस अवस्था में दूसरा प्रतिग्रहस्थान नहीं हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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