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________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ २७७. असंजदसम्मादिविम्मि एगूणवीसाए पडिग्गहट्ठाणं होइ, तस्स सत्तारसबंधपयडीसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पडिग्गहत्तेण पवेसदसणादो। एदम्मि पडिग्गहद्वाणम्मि पडिबद्धसत्तावीस-छव्वीस-तेवीससंकमट्ठाणाणमुवलंभादो। एदेण चेव मिच्छत्तं खविय सम्मामिच्छत्तपडिग्गहे णासिदे अट्ठारसपडिग्गहट्ठाणं होइ, एत्थ वि वावीसपयडिट्ठाणसंकमोवलंभादो। पुणो वि एदेण सम्मामिच्छत्तं खइय सम्मत्तपडिग्गहे वि णासिदे सत्तारस पडिग्गहट्ठाणमुप्पजइ, इगिवीसकसायपयडीणमेत्थ संकमंताणमुवलंभादो। किन्तु इनके अतिरिक्त २०, १६, १२ और ८ ये चार अप्रतिग्रहस्थान और हैं, क्योंकि गुणस्थान भेदसे प्रतिग्रहरूप प्रकृतियोंको जोड़ने पर जैसे अन्य प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ये चार स्थान नहीं उत्पन्न होते। इसीसे इन्हें अप्रतिग्रहस्थान बतलाया है। इन अप्रतिग्रहस्थानोंके सिवा शेष २२, २१, १६, १८, १७, १५, १४, १३, ११, १०, ६, ७, ६, ५, ४, ३. २, और १ ये १८ प्रतिग्रहस्थान हैं। इनमें से २२ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान २८ या २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके होता है । जो २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्ट है उसके २२ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें २७ प्रकृतियोंका संक्रम होता है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्वप्रकृति संक्रमके अयोग्य है, अतः उसे छोड़ दिया है । तथा जो २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला है उसके भी २२ प्रकृतिक प्रतिग्रह स्थानमें २६ प्रकृतियोंका संक्रम होता है । २१ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके या २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है । जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि है उसके २१ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें २५ प्रकृतियोंका संक्रम होता है । मिथ्यादृष्टिके यद्यपि बन्ध तो २२ प्रकृतियोंका ही होता है तथापि उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंकी उदलना हो जानेके बाद मिथ्यात्व प्रकृति प्रतिग्रह रूप नहीं रहती, अतः २१ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान मिथ्यादृष्टिके भी बन जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीव दो प्रकारके होते हैं। प्रथम तो वे जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना किये बिना उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए हैं और दूसरे वे जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके बाद उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए हैं । २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीब सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके सासादनमें तीन दर्शनमोहनीयके सिवा शेष २५ प्रकृतियों का संक्रम होता है। तथा जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके बाद सासादन गुणस्थानको प्राप्त होते हैं उनके सासादनमें एक प्रावलि काल तक अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भी संक्रम नहीं होता, अतः इसके एक श्रावलि कालतक तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी इन सातके सिवा इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रम होता है। इस प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें २५ प्रकृतियोंका या २१ प्रकृतियोंका संक्रम होता है यह सिद्ध हुआ। ६२७७. असंयत सम्यग्दृष्टिके उन्नीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि उसके सत्रह बन्ध प्रकृतियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्या वका प्रतिग्रहरूपसे प्रवेश देखा जाता है। इस प्रतिग्रह स्थानमें सत्ताईस, छब्बीस और तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानोंका संक्रम उपलब्ध होता है। और जब इसी जीवके मिथ्यात्वका नाश होकर सम्यग्मिथ्यात्व प्रतिग्रहप्रकृति नहीं रहती तब अठारह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि इसमें भी बाईस प्रकृतिक स्थानका संक्रम उपलब्ध होता है। फिर भी इस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका नाश होकर जब सम्यक्त्व भी प्रतिग्रहप्रकृति नहीं रहती तब सत्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें कषाय और नोकषायकी इक्कीस प्रकृतियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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