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________________ पय डिट्ठा डिग्गहापडिग्गह परूवणा ११७ गा० २८ ] सम्मामिच्छाइट्ठिम्मि वि एदं पडिग्गहट्ठाणं पणुवीस - इगिवीससंकमट्ठाणपडिबद्धमणुगंतव्वं । ६२७८. संजदासंजदगुणद्वाणमस्सियूण पण्णारसपडिग्गहड्डाणमुप्पञ्जदे, तेरसविधं बंधमाणस्स तस्स बंधपयडीसु पुव्वं व सत्तावीस - छव्वीस तेवीससंकमट्ठाणाणमाहारभावेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तपयडीणं पवेसणादो । पुणो इमेण दंसणमोहक्खवणमन्भुट्टिय संक्रम उपलब्ध होता है । यह सत्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्यग्मिध्यादृष्टिके भी जानना चाहिये । किन्तु उसके इसमें पच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानोंका संक्रम होता है । विशेषार्थ – अविरतसम्यग्दृष्टिके १६, १८, और १७, प्रकृतिक तीन प्रतिग्रहस्थान होते हैं । दर्शन मोहनी की सत्तावाले सम्यग्दृष्टिके मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का संक्रम अवश्य होता है । मिथ्यात्वका संक्रम तो सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन दोनोंमें होता है किन्तु सम्यग्मिध्यात्वका संक्रम केवल सम्यक्त्वमें होता है । इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूप इन दो प्रतिग्रहप्रकृतियोंको वहां बंधनेवाली सत्रह प्रकृतियों में मिला देने पर १९ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । किन्तु दर्शनमोहनीयको क्षपणाका प्रारम्भ करके जब यह जीव मिध्यात्वका क्षय कर देता है तब सम्यग्मिथ्यात्व प्रतिग्रहप्रकृति नहीं रहती इसलिये १८ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । और इसी प्रकार जब यह जीव सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देता है तब सम्यक्त्व प्रतिग्रहप्रकृति नहीं रहनेसे १७ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है । इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टिके कुल तीन प्रतिग्रहस्थान होते हैं यह बात सिद्ध हुई। अब इसके कितने संक्रमस्थान होते हैं और किन संक्रमस्थानोंका किस प्रतिग्रहस्थान में संक्रम होता है इसका विचार करते हैं— जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके प्रथम समय में सम्यग्मिध्यावका संक्रम न होनेसे छबीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । और द्वितीयादि समयोंमें इसके सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम होने लगने से २७ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । इसी प्रकार जब यह जीव अनन्तानुबन्धचतुष्ककी विसंयोजना करता है तब २३ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ये तीनों संक्रमस्थान उन्नीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके रहते हुए सम्भव हैं, क्योंकि इन स्थानों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सत्ता आवश्यक है । इसलिये उन्नीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में इन तीन स्थानोंका संक्रम होता है यह बात सिद्ध होती है । १८ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान मिथ्यात्वका क्षय होनेपर ही होता है और मिथ्यात्वका क्षय होनेपर संक्रमस्थान २२ प्रकृतिक पाया जाता है, इसलिये १८ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान में २२ प्रकृतिक स्थानका संक्रम होता है यह बात सिद्ध होती है । १७ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्यमिथ्यात्वका क्षय होनेपर होता है और तब संक्रमस्थान इक्कीसप्रकृतिक पाया जाता है, इसलिये १७ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें २१ प्रकृतिकस्थानका संक्रम होता है यह बात सिद्ध होती है । इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टिके प्रतिग्रहस्थान और संक्रमस्थानोंका विचार करके अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि उनका विचार करते हैं - इस गुणस्थान में दर्शनमोहकी प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता और बन्ध सत्रह प्रकृतियोंका होता है, अतः प्रतिग्रहस्थान एक १७ प्रकृतिक ही पाया जाता है । तथापि सत्ता २८ या २४ प्रकृतियोंकी होनेसे संक्रमस्थान २५ या २१ प्रकृतिक ये दो पाये जाते हैं, क्योंकि २८ या २४ प्रकृतियों में से दर्शन मोहनीयकी तीन प्रकृतियोंके संक्रम न होनेसे मित्रगुणस्थान में संक्रमस्थान २५ या २१ प्रकृतिक ही प्राप्त होते हैं । $ २७८. संयतासंयत गुणस्थानकी अपेक्षा पन्द्रह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि तेरह प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले संयतासंयतके बन्धप्रकृतियों में पूर्ववत् २७, २६ और २३ प्रकृतिक संक्रमस्थानोंके आधाररूपसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंका प्रवेश और हो जाता है । फिर इसके द्वारा दर्शन मोहनीय की क्षपणाके लिये उद्यत होकर मिध्यात्वका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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