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________________ गा• २८ ] पयडिट्ठाणपडिग्गहापडिग्गहपरूवणा ११५ एसो-२२, २१, १९,१८,१७,१५,१४,१३,११,१०,६,७, ६,५, ४,३, २, १ । संपहि एदेसि पयडिणिद्देसो कीरदे । तं जहा–मिच्छत्त-सोलसक० तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्स-रदि अरदि-सोग दोण्हं जुगलाणमण्णदरं भय-दुगुंछाओ च एवमेदाओ वावीसपयडीओ घेत्तूण पढम पडिग्गहट्ठाणमुप्पज्जइ, अट्ठावीस-सत्तावीसाणमण्णदरसंतकम्मियमिच्छाइट्टिम्मि जहाकमं सत्तावीस-छब्बीसरायडिट्ठाणसंकमस्स तदाहारत्तेण पउत्तिदसणादो। तेणेव वावीसबंधगेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय मिच्छत्तपडिग्गहवोच्छेदे कदे इगिवीसकसायपयडिपडिबद्धं विदियं पडिग्गहट्ठाणमुप्पजइ, एत्थ वि छब्बीससंतकम्मसहगदपणुवीससंकमट्ठाणस्साहारभावदसणादो । अहवा सासणसम्माइटिस्स मिच्छत्तं मोतूण सेसपयडीओ बंधमाणस्स पयदपडिग्गहट्ठाणमुप्पजइ, तत्थ वि इगिवीसपयडिपडिग्गहपडिबद्धपणुवीस-इगिवीसपयडिट्ठाणसंकमोवलंभादो । २२, २१, १६, १८, १७, १५, १४, १३, ११, १०, ९, ७, ६, ५, ४, ३, २, और १ । अव इन स्थानोंकी प्रकृतियोंका निर्देश करते हैं-मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति या अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा इन बाईस प्रकृतियोंका प्रथम प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि अट्ठाईस और सत्ताईस इनमेंसे किसी एक स्थानके सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीके क्रमसे सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानके संक्रमके आधाररूपसे इस स्थानकी प्रवृत्ति देखी जाती है। बाईस प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाला यही जीव जब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके मिथ्यात्व प्रकृतिका प्रतिग्रहरूपसे विच्छेद कर देता है तब कषायोंकी इक्कीस प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला दूसरा प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है क्योंकि यह स्थान भी छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका आधार देखा जाता है। अथवा मिथ्यात्वके सिवा शेष प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टिके प्रकृत प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि यहाँ पर भी इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका और इक्कोसप्रकृतिकसंक्रमस्थानका संक्रम पाया जाता है। विशेषार्थ-प्रकृतमें दूसरी गाथाके अर्थका खुलासा करते हुए प्रतिग्रहस्थान कितने हैं और अप्रतिग्रहस्थान कितने हैं यह बतलाकर किस प्रतिग्रहस्थानकी कौन कौन प्रकृतियां हैं और उनमेंसे किस प्रतिग्रहस्थानमें किस किस संक्रमस्थानका संक्रम होता है यह बतलाया जा रहा है । प्रतिग्रहका अर्थ स्वीकार करना है और प्रकृतिस्थानका अर्थ प्रकृतियोंका समुदाय है। आशय यह है कि जो प्रकृतियोंका समुदाय संक्रमको प्राप्त हुए कर्मों को स्वीकार करके अपनेरूप परिणमा लेता है उसे प्रतिग्रहस्थान कहते हैं। इसका दूसरा नाम पतद्ग्रहस्थान भी है सो इससे पड़नेवाले कों को जो प्रकृतियोंका समुदाय स्वीकार करता है वह पतद्ग्रहस्थान है ऐसा अर्थ लेना चाहिये । प्रकृतमें मोहनीय कमकी अपेक्षा १० प्रतिग्रहस्थान और १० अप्रतिग्रहस्थान बतलाये हैं। ऐसा नियम है कि बंधनेवाली प्रकृतियोंमें ही संक्रम होता है और मोहनीयकी एक साथ अधिकसे अधिक २२ प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है अतः सबसे उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान २२ प्रकृतिक ही हो सकता है। यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व इन द। प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता तथापि ये प्रतिग्रहरूप स्वीकार की गई है । पर इनमें यह योग्यता सम्यग्दृष्टि जीवके सिवा अन्यत्र नहीं पाई जाती ऐसा नियम है । अतः २२ प्रकृतिक स्थान से ऊपर तो प्रतिप्रस्थान हो ही नहीं सकते यह सिद्व हाता है इससे २३, २४, २५, २६, २७ ओर २ये छह अप्रतिप्रस्थान बतलाये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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