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________________ ११४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ एदं दोदंसणमोहपयडिसंकमट्ठाणं कस्स होइ ति आसंकाए इदमाह-- 8 सुहुमसांपराइय-उवसामयस्स वा उवसंतकसायरस वा। २७४. सुगमं । । ® एकिस्से संकमो खवगस्स माणे खविदे मायाए अक्खीणाए । $ २७५. सुगमं । ___ एवं द्वाणसमुकित्तणाए पयडिणिद्देसो समत्तो। __ एवं पढमगाहाए अत्थो समत्तो । $ २७६. संपहि विदियादिगाहाणमत्थो सुगमो ति चुण्णिसुत्ते ण परूविदो । तमिदाणिवत्तइस्सामो—'सोलसय बारसट्ठय० पडिग्गहा होति।' एसा विदिया गाहा पयडिट्ठाणपडिग्गहापडिग्गहपरूवणे पडिबद्धा । तं जहा—गाहापुन्वद्धणिहिट्ठाणि सोलसादीणि अपडिग्गहट्ठाणाणि णाम १६,१२,८,२०,२३, २४, २५, २६,२७, २८एदाणि मोत्तूण सेसाणि वावीसादीणि एयपयडिपजंताणि पडिग्गहठाणाणि होति । तेसिमंकविण्णासो संक्रम उपलब्ध होता है । यह दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा दो प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होता है ऐसी आशंका होने पर यह आगेका सूत्र कहते हैं-- * सूक्ष्मसम्पराय उपशामक और उपशान्तकषाय जीवके होता है। $ २७४. यह सूत्र सुगम है। विशेषार्थ-यहाँ दो प्रकृतिक संक्रमस्थान तीन प्रकारसे बतलाया है । इनमेंसे अन्तिम संक्रमस्थानका स्वामी सूक्ष्मसम्पराय उपशामक और उपशान्तकषाय जीव है। शेष कथन सुगम है। * क्षपक जीवके मानका क्षय होकर मायाके अक्षीण रहते हुए एक प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। ६ २७५. यह सूत्र सुगम है। विशेषार्थ-आशय यह है कि उपशमश्रेणिमें एक प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्भव नहीं है । वह केवल आपकश्रेणिमें ही प्राप्त होता है जिसका निर्देश चूर्णिसूत्र में किया ही है । इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंके निर्देशका कथन समाप्त हुआ। इस प्रकार पहली गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। $ २७६. द्वितीयादि गाथाओंका अर्थ सुगम होनेसे चूर्णिसूत्र में नहीं कहा है । उसे इस समय बतलाते हैं -'सोलसय बारसट्ठय. पडिग्गहा होति' यह दूसरी गाथा है जो प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान अप्रतिग्रहके कथन करनेमें प्रतिबद्ध है। यथा-गाथाके पूर्वार्धमें निर्दिष्ट किये गये सोलह आदि अप्रतिग्रहस्थान हैं-१६, १२, ८, २०, २३, २४, २५, २६, २७, और २८ । इन स्थानोंके सिवा शेष बाईससे लेकर एक प्रकृति तक प्रतिग्रहस्थान हैं। उनका अंकविन्यास इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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