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________________ समुत्तिणा $ २६६. तत्थ तिन्हं संजलणाणं संकमदंसणादो । * अथवा एक्कावीसदिकम्मंसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु गा० २७ ] सेसे ११३ वसंतेसु । $ २७०, तत्थ मायासंजलणेण सह दोन्हं लोहाणं संकमदंसणादो । * दोहं खवगस्स को खविदे सेसेस अक्खीणेसु । $ २७१. माण - मायासं जलणाणं दोन्हं चैव तत्थ संकमदंसणादो । * हवा एक्कावीसदिकम्मंसियस्स तिविहाए मायाए उवसंताए वसंतेसु । $ २७२. तिविहमायोवसमे दुविहलोहस्सेव तत्थ संकमोवलंभादो । * अहवा चडवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे लोहे उवसंते । $ २७३. तस्स दुविहलोहोवसमेण दोदंसणमोहपयडीणं चैव संकमोवलंभादो । $ २६६. क्योंकि यहाँ पर तीन संज्वलनोंका संक्रम देखा जाता है । —एक * अथवा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारकी मायाका उपशम होकर शेष प्रकृतियोंके अनुपशान्त रहते हुए तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । $ २७०. क्योंकि यहाँ पर माया संज्वलन के साथ दोनों लोभोंका संक्रम देखा जाता है । विशेषार्थ - - यहाँ पर तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकार से बतलाया है - क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा और दूसरा उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । क्षपकश्रेणिमें जो स्थान प्राप्त होता है वह पुरुषवेदके क्षय होनेपर प्राप्त होता है। यहां यद्यपि सत्ता चारों संज्वलनोंकी है तथापि संक्रम संज्वलन लोभके बिना शेत्र तीनका होता है । उपशमश्रेणि में प्राप्त होनेवाला स्थान इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके प्राप्त होता है । यह जीव जब दो प्रकारकी मायाका उपशम कर लेता है तब यह स्थान होता है। इसमें माया संज्वलनका और संज्जलन लोभके सिवा शेष दो लोभका संक्रम होता है । * क्षपक जीवके क्रोधका क्षय होकर शेष प्रकृतियोंके अक्षीण रहते हुए दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है $ २७१. क्योंकि यहां पर मान और माया इन दो संज्वलन प्रकृतियोंका ही संक्रम देखा जाता है । * अथवा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारकी मायाका उपशम होकर शेष प्रकृतियोंके अनुपशान्त रहते हुए दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । $ २७२. क्योंकि यहां पर तीन प्रकारकी मायाका उपशम होने पर दो प्रकार के लोभका ही संक्रम पाया जाता है । * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारके लोभका उपशम होनेपर दो प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । $ २७३. क्योंकि इसके दो प्रकार के लोभका उपशम होकर दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियों का ૧૫ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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