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११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ॐ चउण्हं खवगस्स छुसु कम्मेसु खीणेसु पुरिसवेदे अक्खीणे ।
६ २६७. खवगस्स इथिवेदक्खयाणंतरमुप्पाइददससंकमट्ठाणस्स पुणो छण्णोकसाएसु खीणेसु पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ ति सुत्तत्थणिच्छओ ।
ॐ अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स तिविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु अणुबसंतेसु ।
२६८. तत्थ दुविहलोह-दोदंसणमोहपयडीणं संकमस्स परिप्फुडमुवलंभादो । एत्थ वि ओदरमाणसंबंधेणेदं संकमट्ठाणमणुमग्गियव्वं । ___ तिरहं खवगस्स पुरिसबेदे खीणे सेसेसु अक्खीणेसु ।
बच रहते हैं। संज्वलन लोभका आनुपूर्वी संक्रमके कारण संक्रम नहीं होता। दूसरा स्थान चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावालेके होता है । इसके और सबका उपशम तो हो जाता है किन्तु माया संज्वलन, दो लोभ और दो दर्शनमोहनीय इन पांच प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है। यहां भी संज्वलन लोभका संक्रम नहीं होता।
___ *क्षपकके छह नोकपायोंका क्षय होकर पुरुषवेदके अक्षीण रहते हुए चार प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ।।
६ २६७. स्त्रीवेदके क्षयके बाद जिसने दस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न कर लिया है ऐसे क्षपक जीवके तदनन्तर छह नोकषायोंका क्षय करने पर प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका भाव है।
* अथवा. चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारकी मायाका उपशम होकर शेष प्रकृतियोंके अनुपशान्त रहते हुए चार प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है।
२६८. क्योंकि यहां पर दो प्रकारके लोभ और दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियां इन चारका स्पष्टरूपसे संक्रम उपलब्ध होता है। यहां पर भी उतरनेवाले जीवके सम्बन्धसे यह संक्रमस्थान जान लेना चाहिये।
विशेषार्थ--यहां पर चार प्रकृतिक संक्रमस्थान तीन प्रकारसे बतलाया है। एक क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा और दो उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । उपशमश्रेणिमें भी प्रथम चढ़नेवालेके और दूसरा उतरनेवालेके होता है। क्षपकश्रेणिमें पहला स्थान छह नोकषायोंका क्षय होने पर प्राप्त होता है । इसमें चार संज्वलन और एक पुरुषवेद इन पांचकी सत्ता रहती है किन्तु संक्रम संज्वलन लोभके बिना चारका होता है। दूसरा स्थान चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावालेके होता है। इसमें दो लोभ
और दो दर्शनमोहनीय इन चार प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है। संज्वलन लोभका संक्रम नहीं होता । तीसरा स्थान इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके उपश्रमश्रेणिसे उतरते हुए तीन प्रकारके लोभके साथ संज्वलन मायाके संक्रमित करने पर होता है। उस समय इस जीवके तीन लोभ माया संज्वलन यह चार प्रकृतिक संकमस्थान होता है।
* क्षपक जीवके पुरुपवेदका क्षय होकर शेष प्रकृतियोंके अक्षीण रहते हुए तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है।
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