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________________ गा० २७] ट्ठाणसमुक्त्तिणा १११ ॐ छुण्हमेक्कावीसदिकम्मंसियस्स दुविहे माणे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु। २६४. कुदो? तत्थ माणसंजलणेण सह तिविहमाय-दुविहलोभाणं संकमदंसणादो। ओयरमाणसंबंधेण वि पयदसंकमट्ठाणमेत्थाणुगंतव्वं । ® पंचण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उवसंते सेसकसाएसु अणुवसंतेसु। $ २६५. कुदो ? तत्थ तिविहमाय-दुविहलोभाणं संकमदंसणादो। ® अथवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु अणुवसंतेसु । २६६. किं कारणं ? तत्थ मायासंजलणेण सह दुविहलोभ-दोदंसणमोहपयडीणं संकमोवलंभादो ? * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारके मानका उपशम होकर शेष कपायोंके अनुपशान्त रहते हुए छह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। २६४. क्योंकि इस संक्रमस्थानमें मान संज्वलनके साथ तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारका लोभ इन छह प्रकृतियोंका संक्रम देखा जाता है। उतरनेवाले जीवके सम्बन्धसे भी यहां पर प्रकृत संक्रमस्थान जानना चाहिये। विशेषार्थ- यहां पर छह प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकारसे बतलाया गया है। ये दोनों ही स्थान इक्कीस प्रकृतियोंको सत्तावाले जीवके उपशमश्रेणिमें प्राप्त होते हैं। इनमेंसे पहला चढ़नेवालेके और दूसरा उतरनेवाले जीवके होता है। चढ़नेवालेके तो दो प्रकारके मानका उपशम होने पर होता है । इसके मान संज्वलन, तीन माया और दो लोभ इन छह प्रकृतियोका संक्रम होता रहता है। तथा उतरनेवालेके मान संज्वलन के उपशान्त रहते हुए ही यह स्थान होता है। इसके तीन माया और तीन लोभ इन छह प्रकृतियोंका संवम होने लगता है। * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारके मानका उपशम होकर शेष कषायोंके अनुपशान्त रहते हुए पांच प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ६२६५. क्योंकि यहां पर तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारके लोभका संक्रम देखा जाता है। * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारकी मायाका उपशम होकर शेष प्रकृतियोंके अनुपशान्त रहते हुए पांच प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। ६२६६. क्योंकि यहां पर माया संज्वलनके साथ दो प्रकारके लोभ और दो दर्शनमोहनीय इन पांच प्रकृतियोंका संक्रम देखा जाता है । विशेषार्थ--यहां पर पांच प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकारसे बतलाया है। ये दोनों ही स्थान उपशमश्रेणिमें चढ़ते समय प्राप्त होते हैं। पहला स्थान इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावालेके होता है। इसके और सब प्रकृतियोंका तो उपशम हो जाता है किन्तु तीन माया और दो लोभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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