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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ २६२. कोहसंजलणमुवसामिय दसण्हं संकामयत्तेणावट्ठिदस्स तस्स दुविहमाणोवसमे णिरुद्धसंकमट्ठाणुप्पत्ति' पडि विरोहाभावादो। एत्थ वि ओदरमाणसंबंधेण पयदसंकमट्ठाणपरूवणा कायव्वा । ॐ सत्तण्हं चउवोसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उवसंते सेसेसु कसाएमु अणुवसंतसु । ६२६३. चउवीसदिकम्मंसियस्से त्ति वयणेण इगिवीसकम्मंसियस्स खवगस्स च पडिसेहो कओ, तत्थ पयदसंकमट्ठाणुप्पत्तीए असंभवादो । तदो चउवीससंतकम्मियस्स तिविहे माणे उवसंते तिविहमाय-दुविहलोह-दंसणमोहपयडीओ घेत्तूण पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ त्ति घेत्तव्वं । ६ २६२. क्रोधसंज्वलनको उपशमा कर जो दस प्रकृतियोंका संक्रम करते हुए अवस्थित है उसके दो प्रकारके मानका उपशम होने पर प्रकृत संक्रमस्थानकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। यहां पर भी उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवके सम्बन्धसे प्रकृत संक्रमस्थानका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ—यहाँ पर आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान तीन प्रकारसे बतलाया गया है । ये तीनों ही संक्रमस्थान उपशमश्रेणिमें प्राप्त होते हैं। उनमेंसे दो चढ़नेवाले जीवों के प्राप्त होते हैं और एक उतरनेवाले जीवके प्राप्त होता है । चढ़नेवालोंमें पहला इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके और दसरा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके होता है। प्रथम स्थान तीनों क्रोधोंके उपशान्त होने पर प्राप्त होता है। इसके तीनों मान, तीनों माया और लोभ संज्वलनके बिना दो लोभ इन आठ प्रकृतियोंका संकम होता रहता है। दूसरा स्थान दो प्रकारके मानके उपशान्त होने पर प्राप्त होता है। इसके मान संज्वलन, तीन माया, लोभसंज्वलनके बिना दो लोभ और दो दर्शनमोहनीय इन आठ प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है। इन दो स्थानके सिवा जो तीसरा स्थान उतरनेवालेके प्राप्त होता है सो वह चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके ही प्राप्त होता है । इसके तीन माया, तीन लोभ और दो दर्शनमोहनीय इन आठ प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है। * चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारके मानका उपशम होकर शेप कपायोंके अनुपशान्त रहते हुए सात प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ___$ २६३. सूत्रमें 'चउबीसदिकम्मसियस्त' वचन आया है सो इस द्वारा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्ताव ले उपशामकका और क्षपकका निषेध किया है, क्योंकि उसके प्रकृत संक्रमस्थानकी उत्पत्ति होना असम्भव है । अतः चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारका मान उपशान्त होने पर तीन प्रकारकी माया, दो प्रकारका लभ और दो दर्शनमोहनीय प्रकृतियां इन आठकी अपेक्षा प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ऐसा जानना चाहिये । विशेषार्थ—सात प्रकृतिक संक्रमस्थान एक ही प्रकारका है जिसका टीकामें ही खुलासा किया है। १. ता प्रतौ णिरुद्धे संकमट्ठाणुप्पत्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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