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________________ १०१ गा० २७] ट्ठाणसमुकित्तणा २६०. चउवीसदिकम्मंसियस्स ताव पयदसंकमट्ठाणसंभवो णस्थि, कोहसंजलणमुवसामिय दसण्हं संकामयभावेणावट्टिदस्स तस्स दुविहे माणे उवसंते तत्तो हेट्ठिमटाणुप्पत्तिदंसणादो। खवगस्स वि इत्थिवेदक्खएण दससंकामयस्स छसु कम्मेसु खीणेसु चउण्हं संकमट्ठाणुप्पत्तिदंसणादो णत्थि पयदसंकमट्ठाणसंभवो' । तम्हा पुव्वुत्तो चेव तदुप्पत्तिपयारो णाण्णो त्ति सिद्धं । * अट्ठण्हं एक्कावीसदिकम्मंसियस तिविहे कोहे उवसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु। २६१. इगिवीससंतकम्मियस्सुवसामगस्स तिविहकोहोवसमे संते संकमट्ठाणमेदमुप्पजइ, समणंतरपरूविदसंकमपयडीसु कोहसंजलणस्स बहिब्भावदंसणादो। ॐ अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे माणे उवसंते माणसंजलणे अणुवसंते। क्योंकि क्रोधसंज्वलनका ६२६०. चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके प्रकृत संक्रमस्थान तो सम्भव नहीं है, के क्रोधसंज्वलनका उपशम करके जो दस प्रक्रतियोंका संक्रम करता हा स्थित है उसके दो प्रकारके मानका उपशम करने पर नौ प्रकृतिक संक्रमस्थानके नीचेके स्थानकी उत्पत्ति देखो जाती है । इसी प्रकार स्त्रीवेदका क्षय हो जाने पर दस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले क्षपक जीवके भी छह नोकषायोंका क्षय हो जाने पर चार प्रकृतिक संक्रम थानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये इनके प्रकृत संक्रमस्थान सम्भव नहीं है । अतः उसके उत्पत्तिका प्रकार पूर्वोक्त ही है अन्य नहं यह बात सिद्ध होती है। विशेषार्थ—यहां नौ प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकारसे बतलाया है। जो दोनों ही प्रकार उपशमश्रेणिकी अपेक्षासे प्राप्त होते हैं। जब इक्कीस प्रक्रतिय की सत्तावाले जीवके दो प्रकारके क्रोध का उपशम हो जाता है किन्तु क्रोधसंज्वलन अनुपशान्त रहता है तब प्रथम प्रकार प्राप्त होता है। इस स्थानमें क्रोधसंज्वलन, तीन मान, तीन माया और संज्वलन लोभके सिवा शेष दो लोभ इन नौ प्रकृतियोंका संक्रम होता है। दूसरा प्रकार उपशमश्रेणिसे उतरते समय इसी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके प्राप्त होता है। किन्तु इसके संज्वलन क्रोध उपशान्त रहता है और तीन मान, तीन माया तथा तीन लोभ ये नौ प्रक्रतियाँ अनपशान्त होकर इनका संक्रम होता रहता है। इन दो प्रकारोंको छोड़कर अन्य किसी प्रकारसे इस स्थानकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके तीन प्रकारके क्रोधका उपशम होकर शेष कपायोंके अनुपशान्त रहते हुए आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ६२६१. इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके तीन प्रकारके क्रोधका उपशम होने पर प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि इससे पूर्वके स्थानमें जो संक्रमरूप प्रकृतियां कही हैं उनमेंसे क्रोधसंज्वलनका बहिर्भाव देखा जाता है। * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारके मानका उपशम होकर मानसंज्वलनके अनुपशान्त रहते हुए आठ प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । १. प्रा. प्रतौ हेहिमाणुप्पत्तिदंत्तणादो इति पाठः । २. ता. प्रतौ पयदट्ठाणसंभवो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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