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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ * एक्कारसण्हं खवगस्स गउंसयवेदे खविदे इत्थिवेदे अक्खीणे । २५४. खवगस्स अट्ठकसायक्खवणवावारेण तेरससंकामयभावेणावट्ठिदस्स पुणो आणुपुव्वीसंकमवसेण समुप्पाइदबारससंकमट्ठाणस्स णवंसयवेदे परिक्खीणे एकारससंकमट्ठाणमुप्पजइ, तिसंजलण-अट्ठणोकसायाणं तत्थ संकमदंसणादो।। 8 अथवा एक्कावीसदिकम्मंसियस्स पुरिसवेदे उवसंते अणुवसंतेसु कसाएसु। २५५. कुदो ? एक्कारसकसायाणं परिप्फुडमेव तत्थसंकतिदंसणादो। * चउवीसदिकम्मंसियस्स वा दुविहे कोहे उवसंते कोहसंजलणे अणुवसते। $ २५६. चउवीसदिकम्मंसियस्स वा णिरुद्धसंकमट्ठाणमुप्पजइ । कुदो ? पुव्वुत्तविहाणेण तेरससंकामयभावेणावट्ठिदस्स तस्स दुविहकोहोवसमे संते कोहसंजलणेण सह एकारसपयडीणं संकमोवलंभादो। ओदरमाणसंबंधेण वि पयदसंकमट्ठाणसंभवो वत्तव्यो, सुत्तस्सेदस्स देसामासियभावेणावट्ठाणादो। यहां तीसरा स्थान चर्णिसूत्रकारने नहीं कहा है सो चर्णिसूत्रको देशामर्षक मानकर उसका स्वीकार करना चाहिये। __* क्षपक जीवके नपुंसकवेदका क्षय होकर स्त्रीवेदका क्षय नहीं होने पर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। ___$ २५४. जिस क्षपक जीवने आठ कषायोंका क्षय करके तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त कर लिया है फिर आनुपूर्वीसंक्रमके कारण बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानको उत्पन्न कर लिया है उसके नपुसकवेदका क्षय होनेपर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि यहां तीन संज्वलन और आठ नोकषायोंका संक्रम देखा जाता है। ___ * अथवा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके पुरुषवेदका उपशम होकर कषायोंके अनुपशान्त रहते हुए ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। ६ २५५. क्योंकि यहां ग्यारह कषायोंका स्पष्ट रूपसे संक्रम देखा जाता है। * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारके क्रोधोंका उपशम होकर क्रोधसंज्वलनके अनुपशान्त रहते हुए ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ६२५६. अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके विवक्षित संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि पूर्वोक्त विधिसे जो तेरह प्रकृतिक संक्रमभावसे अवस्थित है उसके दो प्रकारके क्रोधोंका उपशम हो जाने पर क्रोध संज्वलनके साथ ग्यारह प्रकृतियोंका संक्रम उपलब्धि होता है । इसी प्रकार उतरनेवाले जीवके सम्बन्धसे भी प्रकृत संक्रमस्थानका कथन करना चाहिये, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षकभावसे अवस्थित है। विशेषार्थ—यहाँ ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान चार प्रकारसे बतलाया है। प्रथम क्षपक श्रेणिकी अपेक्षा और शेष तीन उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । क्षपकनेणिकी अपेक्षा नपुसकवेदका १. वी०प्रतौ णउंसयवेदे अक्खीणे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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