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________________ गा० २७] ट्ठाणसमुक्त्तिणा १०५. * बारसण्हं खवगरस आणुपुव्वीसंकमो प्राढत्तो जाव णवुसयवेदो अक्खीणो। २५२. तस्सेव तेरससंकामयस्स खवगस्स आणुपुव्वीसंकमो आढत्तो जाव णqसयवेदो अक्खीणो ताव बारसण्हं संकमट्ठाणं होइ त्ति सुत्तत्थसंगहो 8 एक्कावीसदिकम्मंसियस्स वा छस कम्मेसु उवसंतेसु पुरिसवेदे अणुवसंते । २५३. एकवीसकम्मंसियस्स वा उवसामयस्स छसु कम्मेसु उवसंतेसु तं चेव संकमट्ठाणमुप्पजइ, पुरिसवेदे अणुवसंते तेण सह एकारसकसायाणं परिग्गहादो । ओदरमाणगस्स इगिवीससंतकम्मियस्स पयदसंकमट्ठाणसंभवो वत्तव्यो, तिविहे कोहे ओकडिदे तदुवलंभादो। चउ वीससंतकम्मियस्स बारससंकमट्ठाणसंभवो णत्थि । * क्षपक जीवके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होकर जब तक नपुंसकवेदका क्षय नहीं होता है तब तक बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । २५२. तेरह प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले उसी दपक जीवके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होकर जब तक नपुसकवेदका क्षय नहीं होता है तब तक बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है यह उक्त सूत्रका समुच्चयार्थ है। ___* अथवा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके छह नोकषायोंका उपशम होकर पुरुपवेदके अनुपशान्त रहते हुए बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ६२५३. अथवा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपरामक जीवके छह नोकषायोंके उपशान्त हो जानेपर वही संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि यहां पुरुषवेदका उपशम नहीं होनेसे उसके साथ संक्रमके योग्य ग्यारह कषायोंको ग्रहण किया है । इसी प्रकार उतरनेवाले इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके प्रकृत संक्रमस्थानका कथन करना चाहिये, क्योंकि तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण होने पर उक्त स्थान उपलब्ध होता है । किन्तु चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं प्राप्त होता। विशेषार्थ_यहां बारह प्रकृतिक संक्रमस्थान तीन प्रकारसे बतलाया है-प्रथम क्षपक श्रेणिकी अपेक्षा और अन्तके दो उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । प्रथम स्थान तो क्षपक जीवके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होनेके बाद जब तक नपुसकवेदका क्षय नहीं होता तब तक प्राप्त होता है। दूसरा स्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशामकके चढ़ते समय छह नोकषायोंका उपशम होकर जब तक पुरुषवेद का उपशम नहीं होता तब तक प्राप्त होता है और तीसरा स्थान इसी जीवके उतरते समय तीन प्रकारके क्रोधोंके अपकर्षण होनेके समयसे लेकर जब तक पुरुषवेद उपशान्त रहता है तब तक प्राप्त होता है। प्रथम प्रकारमें चार संज्वलन और नौ नोकषाय इन तेरह प्रकृतियोंकी सत्ता है पर संज्वलन लोभके सिवा संक्रम बारहका होता है । दूसरे प्रकारमें सत्ता तो इक्कीस प्रकृतियोंकी है पर संक्रम संज्वलन लोभके सिवा ग्यारह कषाय और पुरुषवेद इन बारह प्रकृतियोंका होता है। इसी तरह तीसरे प्रकारमें सत्ता तो इक्कीस प्रकृतियोंकी है पर संक्रम बारह कषायका ही होता है । १. प्रा० प्रतौ -संकमादो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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